Book Title: Jain Hindi Puja Kavya
Author(s): Aditya Prachandiya
Publisher: Jain Shodh Academy Aligadh

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Page 372
________________ मार्दव मिथ्यादर्शन मुनि मूर्ति मोहनीय ( ३७ ) हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील कोर परिग्रह का पूर्णरूपेण सर्वथा त्याग करना महावत है। मान का अभाव ही मार्दव है। जीवादि तत्त्वों की विपरीत प्रवा। साधु परमेष्ठी, समस्त व्यापार से विमुक्त पार प्रकार की आराधना मे सदा लीन निग्रंप मोर निर्मोह ऐसे सर्व साधु होते हैं, समस्त भाव लिंगी मुनियों को दिगम्बर दशा तथा साधु के २८ मूल गुणों के साथ रहना होता है। प्रतिमा, बिम्ब, विग्रह। वे कर्म परमाणु जो आत्मा के शांत आनंद स्वरूप को विकृत करके, उसमें क्रोध, अहंकार आदि कषाय तथा रागद्वेष रूप परिणति उत्पन्न कर देते हैं, मोहनीय कर्म कहलाते हैं। अध्यात्म-दृष्टि से जीव की परमोच्च अवस्था, जो कर्म अपनी स्थितिपूर्ण करके बंध दशा को नष्ट कर लेता है और आत्म गुणों को निर्मल कर मेता है उसे मोम कहते हैं। वीतराग या वीतरागता के प्रति प्रशस्त रागानुभूति, जिनेन्द्र प्रभु का श्रद्धापूर्वक गुण स्मरण; इसका स्थायीभाव शान्ति (निर्वेद) है। उपासना, सेवा, पद-पान, गुण-संकीर्तन, ऐसा पध जिसमें भगवद्भक्ति हो। हो, हो; संस्कृत की भू धातु का नाशार्थ (लोट्) माक्ष भक्ति भजन भवभव भावपूजा दे, बतदाकार, द्रव्यों का उपयोग किए बिना मन-हीमन पूजा करना। सम्पदर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यचारित्र का समीकरण वस्तुतः रलत्रय कहलाता है। इसके चितवन से व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। एकाग्रता, बल्लीनता, साम्य की अवस्था, समाधि। सय

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