Book Title: Jain Hindi Puja Kavya
Author(s): Aditya Prachandiya
Publisher: Jain Shodh Academy Aligadh

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Page 364
________________ केवलज्ञान क्रों क्षमा गंध गंधोदक गणधर गति गुण गुप्ति गुरू मो. कातिया कर्म ( ३७१ ) किसी बाह्य पदार्थ की सहायता से रहित हो आत्मस्वरूप से उत्पन्न हो, आवरण से रहित हो, क्रम रहित हो, घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुना हो तथा समस्त पदार्थों को जानने वाला हो उसे केवल ज्ञान कहते हैं । अंकुश, गज साधन | आत्मा के दश धर्मों में से प्रथम धर्म का नाम क्षमा है, उपसर्ग से उत्पन्न क्रोध को मान्यता न देना ही क्षमा की प्रवृत्ति है। roerari में से द्वितीय, जिसे चंदन भी कहा जाता है । d. अभिषेक | समवशरण के प्रधान आचार्य का नाम गणधर है । जिसके उदय से जीव दूसरी पर्याय ( भव) प्राप्त करता है, तियंचगति, मनुष्यगति, देवगति और नरकगति । द्रव्य के आश्रय से उसके सम्पूर्ण भाग में तथा समस्त पदार्थों में सदैव रहे उसे गुण अथवा शक्ति कहते हैं । संसार के कारणों से आत्मा का गोल करना ही गुप्ति है अर्थात् मन, वच, काय की प्रवृत्ति का निरोध कर केवल ज्ञाता द्रष्टा भाव से समाधि धारण करने को गुप्ति कहा है, इसके तीन प्रकार हैं- मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, काय गुप्ति | सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन गुणों के द्वारा जो बडे है उनको गुरू कहते हैं अर्थात् आचार्य, उपाध्याय, साधु ये तीन परमेष्ठी ही गुरू है। जीव को उच्च या नीच आचरण वाले कुल मैं उत्पन्न होने में जिस कर्म का उदय हो उसे गोत्र कर्म कहते हैं । जो जीत्र के अनुजीवी गुणों को घात करने से निर्मित होते हैं वे घातिया कर्म कहलाते है, ये चार प्रकार के होते हैं - (१) ज्ञानावरणी, (२) दर्शनावरणी, (३) मोहनीय, (४) मन्तराय ।

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