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तोर्यकर
त्याग
दण्डक
द्रव्यपूजा दर्शन
दर्शनावरणी
दर्शनोपयोग
( ३७४ ) संसार-सापर को स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार कराने वाले महापुरुष तीकर कहलाते हैं। अपने आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान के साथ होने वाले स्वभाव-परिणमन को, जिसमें विभाव का परिपूर्ण त्याग है, त्याग कहते है। नियम, सूत्रांश, सकल्प, परम्परा, छन्दांश, मन, वचन, काय की एकाग्रता। अष्टद्रव्य-युक्त पूजा; दे तदाकार। दर्शन का अभिप्राय प्रदान आस्था, विश्वास से है, इस प्रकार जो मोक्ष मार्ग दिखाये उसे दर्शन कहते हैं । वे कर्म परमाणु जो आत्मा के अनंत दर्शन पर आवरण करते है, दर्शनावरणी कर्म कहलाते हैं। आकार भेद न करके जाति गुण क्रिया आकार प्रकार की विशेषता किए बिना ही जो स्व-पर का सत्ता मात्र सामान्य ग्रहण करना ही दर्शनोपयोग है। जिससे दिव्यता की प्राप्ति होती हो पापों का समूह नष्ट होता है, प्राचीन आचार्यों ने उसे दीक्षा कहा है, जिनवाणी मे वणित विभिन्न लिंग-क्षुल्लक, ऐलक, मुनि, मजिका पद के लिए दीक्षित होना अथवा ग्रहण करना ही दीक्षा कहलाती है। देव का अर्थ दिव्य दृष्टि को प्राप्त करना है, जो दिव्य भाव से युक्त माठ सिखियों सहित क्रीड़ा करते हैं, जिनका शरीर दिव्यमान है, जो लोकालोक को प्रत्यक्ष जानते हैं वही सर्व देव कहलाते हैं। षद्रव्य, नवपदार्थ के उपदेश का रुचि से सुनकर धारण करना देशनासब्धि है। जिनालय, मंदिर, देवालय । असाता वेदनी कर्म के तीन तथा मंद उदय से बित में विभिन्न प्रकार के राम उत्पन्न होकर चारित्र में दोष उत्पन्न कर देते हैं।
दीक्षा
देव
देशनालब्धि
देरासर
दोष