Book Title: Jain Hindi Puja Kavya
Author(s): Aditya Prachandiya
Publisher: Jain Shodh Academy Aligadh

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Page 368
________________ द्रव्य द्रव्यानुयोग द्वादशांग धर्म ध्यान धूप F: नय नवदेव नवधाभक्ति नामकर्म ( ३७५ ) द्रव्य वह मूल विशुद्ध तस्य है जिसमें गुण विद्यमान हो तथा जिसका परिणमन करने का स्वभाव हैं, द्रव्य दो प्रकार से कहे गए हैं- जीवद्रव्य, अजीव द्रव्य । द्रव्यानुयोग मे जीवादि छह द्रव्यों तथा सप्त तत्त्वादि का कथन किया गया है । अर्हन्त की वाणी को गणधरदेव ने सूत्रों में गूंथा है, वही सूत्र द्वादशांग कहलाते हैं, द्वादशांग बारह हैंआचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवयांग, व्याख्या प्रशस्ति, ज्ञानधर्मकथा अंग, उपासकाध्ययन अंतकृतदशांग, अनुतरोपपादक अंग, प्रश्न व्याकरण नाम अंग, विपाक-सूत्र, दृष्टिवाद नाम । धर्म-वस्तु का स्वभाव, दुःख से मुक्ति दिलाने वाला, निश्चय रत्नत्रय रूप से मोक्ष मार्ग, जिससे आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है. रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र; धर्म के लक्षण - ( १ ) वस्तु का स्वभाव बह धर्म (२) अहिंसा (३) उत्तमक्षमादि दश लक्षण ( ४ ) निश्चयरत्नत्रय | चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं । अष्ट द्रव्यों में सातवां द्रव्य । द्वि. बहुवचन "हमें "; च. बहु. "हमारे लिए"; ष. बहु. "हमारा" । वस्तु के एकांशग्राही ज्ञान की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ नीति को नय कहते हैं । नौ देव, अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनधर्म, जिन प्रतिमा, जिन मंदिर । श्रावक को नौ प्रकार की भक्ति को नवधाभक्ति कहते हैं । जिस शरीर में जो हो उस शरीरादि की रचना में जिस कर्म का उदय हो उसे नाम कर्म कहते हैं ।

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