Book Title: Jain Hindi Puja Kavya
Author(s): Aditya Prachandiya
Publisher: Jain Shodh Academy Aligadh

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Page 369
________________ निगोद निर्जरा नित्यमह निर्वपामिइति निर्वाण निर्माल्य सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र पी मोक्ष मार्ग में बंधन रूप उपस्थित होने वाले बाह्य-जयन्तर परिग्रह का स्याग करने वाले केवल सामी साधु को निग्रंन्य कहते हैं। जिन जीवों के साधारण नाम कर्म का उदय होता है उनका शरीर इस प्रकार होता है कि वे अनंतानंत जीवों को निगोद कहते हैं। कर्मों की जीर्णता से निवृत्ति का होना निर्जरा है। दैनंदिनी पूजा, प्रतिदिन का पूजा-कर्तव्य । मेंट करता हूँ, अपित करता हूँ, बढ़ाता हूँ (सं० निर्व/वप्)। कर्म रूपी वाणों का विनाश ही 'निर्वाण' है अर्थात् दुःख सुख, जन्म-मरण से छुटकारा मिलना ही 'निर्वाण' है। ममत्व-मुक्त होकर महान् आत्माओं के सम्मुख क्षेपित/मर्पित अति निर्मल द्रव्य, स्वामित्व-विसर्जक द्रव्य । समापन, अन्त । बोदारकादि पांच शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल परमाणु नौ कर्म कहलाते हैं। भावाहन, संस्थापन, संनिधीकरण, पूजन और विसर्जन, पूजा के पांच उपचार । जो परमपद में तिष्ठता है वह परमेष्ठी कहलाता है। बरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु ये पांच परमेष्ठी है। मोह के उदय से भावों का ममत्वपूर्ण परिणमन होना ही परिग्रह कहा गया है। रत्नत्रय मार्ग से विचलित न होने तथा कर्मों की निर्जरा के लिए जो क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण, भग्न, याचना, अति, अलाभ, शमशकादि, माक्रोश रोग, मल, तृणस्पर्म, ज्ञान, अदर्शन, प्रसा, सत्कार, निर्वहण नोकर्म पंचोपचार परमेष्ठी परिग्रह परीषह

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