Book Title: Jain Hindi Puja Kavya
Author(s): Aditya Prachandiya
Publisher: Jain Shodh Academy Aligadh

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Page 365
________________ पविशति चरणानुगोग चारिय चितिकर्म चैत्य छहोंतव्य जप ( ७२ ) चौबीस (तीर्थकर)। दे० गंध। भावकों की आचार-विचार परम्परा का निर्देशक मागम ग्रंथ का एक मार्ग करणानुयोग है जिसमें मुनि तथा श्रावक चर्या का वर्णन है। चारित्र संसार की कारणभूत बाह्य व अंतरंग क्रियाजों से निवृत्त होमा कहा है। दे० कृतिकर्म ; कृतिकर्म के पुण्यसंचय के कारण रूप होने से चितिकर्म भी कहा जाता है। महत्प्रतिमा, जिनबिम्ब, जिनालय, जिनमन्दिर । जीव, अजीव (पुदगल), धर्म, अधर्म, आकाश भोर काल छह द्रव्य कहलाते हैं। जिनेन्द्रवाचक/बीजाक्षररूप मन्त्र आदि का अन्तर्जल्परूप (भीतर अनुगुजित) वार-बार उच्चारण । किसी जीव को दुःख न हो इस तरह प्रवृत्ति करने का ख्याल, यतना, उपयोग, सावधानी से काम करने की क्रिया। पूजा के अन्त में पूजा की विषय-वस्तु को सार रूप में प्रस्तुत करने वाला गेप भाग, जो प्रायः प्राकृत, अपभ्रंश या हिन्दी मे होता है, मूलपूजा संस्कृत में होती है (अब यह परम्परा टूट गयी है)। अष्टद्रव्यों में प्रथम द्रव्य । इष्टदेव का मन ही मन स्मरण, या किसी मन्त्र का मन ही मन उचार। जिसने अपने कर्म-कषायों को जीत लिया हो वह जिन कहलाता है। वह स्थान जहां जिन प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी हो। जिसमें अनुभव करने की शक्ति हो, मंसारी और मुक्त जानने-देखने अपवा मानदर्शन शक्तिशाली वस्तु को यात्मा कहा जाता है, जो सदा बाने और जानने कप परिषणित हो उसे पीय अपवा बात्मा कहते है। जयणा जयमाला बल पाप জিলাৰ

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