Book Title: Jain Hindi Puja Kavya
Author(s): Aditya Prachandiya
Publisher: Jain Shodh Academy Aligadh

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Page 362
________________ भासद माष्टाहिकापूजा आहार इज्या इति आशीर्वाद ( ३६९ ). कर्म के उदय में भोगों की जो राग सहित प्रवृत्ति होती है वह नवीन कर्मों को बींचती है अर्थात शुभाशुभ कर्मों के आने का द्वार ही आसब कहलाता है। प्रतिवर्ष भाषाड़, कार्तिक और फास्मुन के शुक्लपका में अष्टमी से पूर्णिमा तक मनाये जाने वाले पर्व में की जाने वाली पूजा, अष्टान्हिका पर्व को "मठाई" भी कहते हैं। आमंत्रण, पूजा के निमिस किसी देवता-वहाँ जिनेन्द्र भगवान को प्रतीक रूप बुलाना। जैन मुनिगण अपने भोजन का मन-चच-काय शुद्धि के साथ अपुष्ट पदार्थ का जो खाद्यान्न ग्रहण करते हैं उसे आहार कहते हैं। बर्हन्त भगवान की पूजा, मूर्ति, प्रतिमा। सर्वभूत मंगल कामना, इसे पूजा के अन्त में पुष्पांजलि अर्पित करते हुए कहा जाता है, दिगम्बरों में पुष्पांजलि रूपं चन्दन से-रंगे अक्षत चढ़ाने की रस्म है । एक पूजा-भेद जिसे ऐन्द्र ध्वज-विधान भी कहा जाता है। परम्परानुसार इसे इन्द्र सम्पन्न करता है। किसी भी जंतु को क्लेश न हो इसलिए सावधानी पूर्वक चलना ही ईर्या समिति है। स्वयं को शंका, कांक्षा आदि दोषों से दूर करना, इसे सम्यक्त्व की आराधना भी कहते हैं। जीब की ज्ञान दर्शन अथवा जानने देखने की शक्ति का व्यापार ही उपयोग है। पंचपरमेष्ठी के भेद विशेष उपाध्याय है। रत्नत्रय तथा धर्मोपदेश की योग्यता रखने वाले साधु को उपाध्याय कहते हैं। द्रव्यश्रुतागम का सातवा अंग, जिसमें श्रावक-धर्म की विस्तृत विवेचना की गई है। शुखाम भावना की कारणरूप-की-गयी बहसेना, बाराधना। इन्द्रध्वज ईर्यासमिति ज्योतन उपयोग उपाध्याय उपासकाध्ययन उपासना

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