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( २७४ ) बीब उसका सेवन करता है, उसे कर्तव्य समानता है, वह दुर्लभ मनुष्यजीवन को नष्ट करता है।
अग्रहीत मिथ्यावर्शन, मिच्याज्ञान और मिथ्याचारित्र जीव को अनादि काल से होते हैं फिर वह मनुष्य होने के पाचात् कुशास्त्र का अभ्यास करके अथवा कुगुरू का उपदेश स्वीकार करके गृहीत मिथ्या शान तथा मिष्या भडा धारण करता है तथा कुमति का अनुसरण करके मिथ्या किया करता है, वह गृहीत मिथ्या चारित्र है । इसलिए जीव को भली भांति सावधान होकर गृहीत तथा अगृहीत -दोनों प्रकार के मिथ्याभाव छोड़ने योग्य हैं और उनका यथार्थ निर्णय करके निश्चय सम्यग्दर्शन प्रकट करना चाहिए। मिथ्या भावों का सेवन करके, संसार में भटक करके, अनन्त जन्म धारण करके अनन्त काल गवां विया अस्तु अब सावधान होकर आत्मोद्धार करना चाहिए।
जीव का लक्षण उपयोग है और ज्ञानवर्शन से व्यापार अर्थात् कार्य को ही उपयोग कहते हैं। बैतन्य के साथ सम्बन्ध रखने वाले जीव के परिणाम को उपयोग कहते हैं और उपयोग को ही शान दर्शन भी कहते हैं । यह जान, दर्शन सब जीवों में हता है और जीव के अतिरिक्त अन्य किसी द्रष्य में नहीं होता, इसलिए यह नीव का लक्षण है । जीव उपयोग का स्वरूप है और जानने देखने कप को उपयोग कहा है । जीव का वह उपयोग शुभ और अराम को रूपों का होता है। यदि उपयोग शुभ होता है तो जीव के पुण्य कर्म का संचय होता है, और यदि उपयोग अशुभ होता है तो पाप कर्म का संचय होता है किन्तु शुभोपयोग और अरामोपयोग का अभाव होने पर न पुण्य कर्म का संचय होता है और न पाप कर्म का संचय होता। जो जिनेन्द्र देव
१. 'उपयोगो लक्षणं'
- मोलशास्त्र, द्वितीय अध्याय, श्लोक बाठ, बृहजिनवाणी सग्रह,
पृष्ठ २०६। २. अप्पा उवमोगप्पा उपभोगो माणसणं भणियो।
सोबि सुहो असुहो वा उपयोगो अप्पनो हवदि ।। -कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, सम्पा० पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति
संरक्षण संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण १९६०, पृष्ठ ३१ । ३. उबमोगो जदि हि मुही पुण्णं जीवस्स संचयं जादि ।
अनुहोवा तब पार्थ तेसिमभावेज पयमत्यि। -कुन्द कुन्द प्राभूत संग्रह, वही, पृष्ठ ३२ ।