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मनोवैज्ञानिक
जैन धर्म में ही नहीं अपितु सभी भारतीय धर्मों में उपासना-विषयक स्वीकृति के परिदर्शन होते है। उपासना के विविधि-रूपों में पूजा का महत्वपूर्ण स्थान है। पूजा के स्वरूप उसके विधि-विधान तथा उद्देश्य-विषयक विभिन्नताएं होते हुए भी यह सर्वमान्य सत्य है कि संसार के दुःखी प्राणी अपने दु:ख-संपात समाप्त करने के लिए पूजा को एक आवश्यक बत-अनुष्ठान स्वीकारते हैं।
संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। अभय क्षधा, औषधि तथा मान विषयक सुविधाओं का वह प्रारम्भ से ही आकांक्षी रहा है। आरम्भ में इन आवश्यक सुविधाओं के अभाव में उसे दुःखानुभूति हुआ करती है। दुःख का सीधा सम्बन्ध उसकी मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है । मनोनुकूलता में उसे सुख और प्रतिकूलता में दुःखानुभूति हुआ करती है । मास्थाबादी प्राणी अपनी इस दुःखद अवस्था से मुक्ति पाने के लिए सामान्यतः परोन्मुखी हो जाता है। ऐसी स्थिति में विवश होकर वह परकीय-सत्ता के सम्मुख अपने को समर्पित कर उसकी गुण-गरिमा गाने-बुहराने लगता है। यही वस्तुतः पूजा को प्रारम्भिक तथा आवश्यक भूमिका होती है। मन की विविध स्थितियों का विज्ञान वस्तुतः मनोविज्ञान कहलाता है। यहां हम हिन्दी जैन पूजा-काव्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करेंगे।
सुखाकामी संसारी जीव ममता प्रिय होता है। पर-वस्तुओं के आश्रय मान बनाकर अपने ही गुणों के विकृत परिणमन में परिणत होने के कारण जगत के प्राणी सतत दुःखी हुमा करते हैं । दु.ख का कारण अज्ञान है। प्राणी की अनादिकालीन भूलों को यहाँ संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है।
शरीर है सो में इस प्रकार को मान्यता यह जीव अनादिकाल से मानता माया है शारीरिक सुख-सुविधाओं में मासक्ति रखकर बह निरन्तर प्रमात्मक गोवन जी नहीं है। शरीर की उत्पत्ति से वह जीव का बन्म और सरीर के