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अनुयोग
अनेकांत
अन्तराय कर्म
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भव
( ३६६ )
अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ, धर्म ।
fararut में वर्णित आगम जिसमें भूत व भावीकाल के पदार्थों का निश्चयात्मक वर्णन किया गया है, अनुयोग कहते हैं। इसके चार भेद हैं- (क) प्रथमा - नुयोग (ख) करणानुयोग (ग) चरणानुयोग (घ) द्रव्यानुयोग ।
यह यौगिक शब्द है—अनेक + अन्त; अन्त का अर्थ है - धर्म, प्रत्येक वस्तु में अनंतगुण विद्यमान रहते हैं, वस्तुजन्य उन सभी गुणों को देखना अनेकांत कहलाता है ।
वे कर्म परमाणु जो जीव के दान, लाभ, भोग, उपभोग और शक्ति के विघ्न में उत्पन्न होते हैं, अन्तराय कर्म कहलाते हैं ।
भगवान् की प्रतिमा का जल आदि से स्नान; इस तरह प्राप्त जल को 'गंधोदक' कहा जाता है, जिसे श्रावक वर्ग श्रद्धापूर्वक मस्तक, नेत्र और ग्रोवा भाग पर लगाता है; अभिषेक की तैयारी को प्रस्तावना कहा जाता है; प्रक्षाल; जिनके घातिया कर्म नष्ट हो गए हैं उन केवलियों को 'स्नातक' कहा गया है । 'अ' अभय का सूचक है, यह वर्णमाला का आरम्भी स्वर है तथा सर्वव्यञ्जनव्यापी है; 'र्' अग्निबीज है, जो मस्तक में प्रदीप्त अग्नि की तरह व्याप्त होने की क्षमता रखता है, 'ह' वर्णमाला के अन्त में आने वाला ऊष्म वर्ण है, जो हृदयवर्ती होने के कारण
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बहुमत / भारत है, यह चन्द्रन्दु नासिकाग्रवर्ती है और सारे वणों के मस्तक पर रहता है; "महं" का समग्र अर्थ है : 'अरिहन्त रूप सर्वज्ञ परमात्मा', चार जातिया कर्मों का नाश कर अनंत चतुष्टय को प्राप्त करके जो केवल ज्ञानी परम आत्मा है जो
अपने स्वरूप में स्थिर है, वह अर्हन्त है ।