________________
( २८१ )
करता है ।" विविध भांति परिमल सुमन में भ्रमर की कामवृति को विध्वंस करने की शक्ति विमान रहती है, उसी प्रकार देव-शास्त्र-गुरु में कामनाश की महिमा विद्यमान है, अस्तु पूजक उनके गुणों का संगान करता हुआ काम विध्वंस करने के लिए पुष्प का क्षेपण करता है।" क्षुधा-रोग शान्त करने के लिए बद-रस विनिर्मित मेख की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार पूजा काव्य में सुधा रोग के शाश्वत- शमनार्थ देव-शास्त्र-गुरु के विव्य गुणों का पूजक द्वारा चिन्तवन करने का विधान है। ऐसा करने से भक्त की धारणा है कि वह इस रोग से मुक्त हो सकता है ।"
अज्ञान-कर्म-बन्ध का प्रमुख आधार है। अज्ञान तिमिर समाप्त करने के लिए पूजक स्व-पर- प्रकाशक दीपक का क्षेपण करता है और साथ ही देव-शास्त्र
१. यह भव-समुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई । अति दृढ़ परम पावन जबारथ भक्तिवर नौका सही ॥ उज्ज्वल अखण्डित सालि तन्दुल पुंज घरि त्रय गुणजचू । अरहन्त श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
तंदुल सालि सुगंधि अति परम अखंडित बीन । जासों पूजों परम पद देव शास्त्र गुरु तीन ||
- श्री देवशास्त्रगुरुपूजा, खानतराय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०७ ।
जे विनयवंत सुभभ्य उर-अम्बुज प्रकाशन भानु हैं । जे एक मुख चारित्र भाषत त्रिजग माहि प्रधान है ।। लहि कुन्द कमलादिक पहुप भव-भव कुवेवन सों बच्चू । अरहन्त श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्व्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
fafas wife परिमल सुमन भ्रमर जास आधीन 1 जासों पूजों परम पद देवशास्त्र गुरु तीन |
B
- श्री देवशास्त्रगुरुपूजा, खानतराय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०८ ।
३. अति सबल मद कंदर्प जाको शुभ्रा उरग अमान है। दुस्सह भवानक तासु नाशन को सुगरुड़ समान है ।। उत्तम छहों रसयुक्त तित नैवेद्य करि घृत में प अरहन्त भूत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रथ नित पूजा रचूं ॥ नाना विध संयुक्त रस, व्यंजन सरस नवीन
जासों पूजौं परम पद, देवशास्त्र गुरु तीन ||
--श्री देवशास्त्रगुरुपूजा, बानवस्य, ज्ञानपीठ पूजाजनि, पृष्ठ १०८ ।