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४. अन्य ५. संसार ६. लोक ७. अशुचिता ८. मानव १. संवर १०. निर्जरा ११. धर्म
१२. बोधि अध्रुव-भावना-द्वादश अनुप्रेक्षा नामक अन्य में स्वामी कातिकेय ने अध्रुव-भावना के विषय में चर्चा करते समय कहा है कि जो कुछ उत्पन्न हुआ है, उसका नियम से विनाश होता है। परिणामस्वरूप होने से कुछ भी शाश्वत नहीं है।' जन्म-मरण सहित है, यौवन-जरा सहित है, लक्ष्मी विनाश सहित है, इस प्रकार सब पदार्थ क्षणभंगुर सुनकर, महामोह को छोड़ना अपेक्षित है। विषयों के प्रति विरक्ति-भावना वस्तुतः उत्तम-सुख को प्रदायिनी शक्ति है।
अशरण भावना-मरण काल आने पर तीनों लोकों में मणि, मंत्र, औषधि, रक्षक, हाथी, घोड़े, रथ और समस्त विधाएं जीवों को मृत्यु से बचाने में समर्थ नहीं हैं ।' आस्मा ही जन्म, जरा, मरण, रोग और मप से १. जंकि पि वि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइ णियमेण ।
परिणाम सरूवेण विणय कि पि वि सासयं अस्थि ।। जम्मं मरणेण समं संपज्जइ जुब्बण जरासहियं ।। लच्छी विणास सहिया इस सव्वं भंगुरं मुणह । -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, तत्वसमुच्चय, डा. हीरालाल जैन, भारत जैन
महामंडल, वर्धा, प्रपम सं० १९५२, गायांक ४, ५, पृष्ठ २६ । २. पाऊण महामोहं विसये सुणिऊण भंगुरे सम्बे। णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तम लहर।।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा, तत्वसमुच्चय, डा.हीरालाल जन , गाांक ८, पृष्ठ
२६, वही। ३. मणि-मंतोसह-रखा इय-य-रहमो य सयल विज्ञानो। जीवाणं हि सरण तिलोए मरण समबम्हि ।।
कुन्दकुन्द प्राभूत संबह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गावांक ८, कुन्दकुन्दाचार्य जैन संस्कृति संरक्षक, संघ, सोलापुर, प्रथम सं० १९६०, पृष्ठ १३८ ।