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व्यवस्था नहीं होती है। वे निराकार परमात्मा कहलाते हैं ।" विचारपूर्वक देखें तो लगता है कि सिद्ध साकार और निराकार दोनों ही हैं। साकार से अभिप्राय अनन्त गुणों से युक्त और निराकार से तात्पर्य स्पर्श, पन्ध, वर्ण और रस से रहित । जैनधर्म में सिद्ध के अनन्त गुणों को सम्यक्त्व,
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१. (अ) औदारिक शब्द का अर्थ है पेटवाला । बौदारिक शरीर तियंच एवं मनुष्य गति के जीवों के हुआ करता है ।
- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण वि० सं० २०२७, पृष्ठ ५०० । (ब) विक्रया का अर्थ है शरीर के स्वाभाविक आकार के अतिरिक्त विभिन्न आकार का बनाना वैक्रियक कहलाता है ।
- तत्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र ४६, उमास्वामि, अखिल विश्व जैन मिशन प्रकाशन, अलीगंज, एटा, प्रथम संस्करण सन् १६५७, पृष्ठ ३२ ।
( स ) जिस शरीर में प्रतिक्षण आगमन तथा निर्गमन की क्रिया चलती रहती है वह शरीर आहारक कहलाता है ।
- जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग १, क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण २०२७, पृष्ठ ३०८ ॥
(द) तेज और प्रभा से उत्पन्न होता है उसे तेजस शरीर कहते है । -- राजवार्तिक, अध्याय २, सूत्र ३६, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण वि० सं० २००८ ।
(य) कर्मों का समुदाय ही कार्याण शरीर है। जीव के प्रदेशों के साथ बँधे अष्ट कर्मों के सूक्ष्म पुद्गल स्कन्धों के संग्रह का नाम कार्माण शरीर है।
- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, क्षु० जिनेन्द्र वर्णों, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण २००८, पृष्ठ ७५ ।
२. जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण १६६३, पृष्ठ ६७ ।