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उनीसवीं शती के कविवर वृंदावन द्वारा प्रणीत पूजाओं में त्रिषंगी छंद का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है जिसमें शान्तररू का उनके उल्लेखनीय है ।
मात्रिक अ समछन्द
दोहा
मात्रिक असम छंदों में दोहा का बड़ा महत्व है।' अठारहवीं शती से जैन- हिन्दी-पूजा - काव्य-कृतियों में इस छंद के व्यवहार का शुभारम्भ हुआ है। कविवर धानतराय ने अपनी पूजाकाव्य कृति में इसे भलीभांति अपनाया है।
उझीसवीं शती में वृंदावन' मनरंग, रामचन्द्र, अख्तावररत्न',
१. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशकज्ञान मण्डल लिमिटेड, बनारस, सस्करण सवत २०१५, पृष्ठ ३४२ ।
२. श्री नंदीश्वरद्वीप पूजा- अष्टान्हिका पूजा द्यानतराय, संगृहीतग्रंथ - राजेश नित्य पूजापाठ सग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, संस्करण १७६, पृष्ठ १७१ ।
३. धनुष डेढ सौ तुंग तन, महासेन नृप नंद । मातु लक्ष्मन उर जये, थापो चद-जिनंद ||
- श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, वृंदावन, सगृहीतप्रय ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम सहकरण १९५७ ई०, पृष्ठ ३३३ ।
४. श्री नेमिनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय. मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ३६५ ।
५. श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र, संगृहीतग्रंथ ज्ञानपीठ पूजांजलि, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १२५ । ६. केकी कंठ समान छवि, वपु उतग नव हाथ ।
लक्षण उरग निहारपग, बन्दों पारसनाथ
- श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बस्तावररत्न, सगुहीत ग्रथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ५४१ ।