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साहित्यिक
रस-योजना जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में रस की स्थिति पर विचार करने से पूर्व यहाँ अन काय को ध्यान में रखकर रस-विषयक संवान्तिक चर्चा करना आवश्यक है। हिन्दी-साहित्य में रस-विषयक को मान्यतायें प्रचलित रही हैं, यथा
१. लौकिक आचार्यों को दृष्टि से २. जैन आचार्यों की दृष्टि से ।
जैन आचार्यों की रस-विषयक मान्यता रही है- अनुभव । अनुभव ही रस का आधार है। यह अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है। आत्मानुभूति होने पर ही रसमयता की स्थिति उत्पन्न हुआ करती है। विभाव, अनुभाव और संचारी भाव जीव के मानसिक, कायिक तथा वाचिक विकार हैं, वे वस्तुतः स्वभाव नहीं है । इन विकारों से पृथक होने पर ही रसों की बास्तविक स्थिति उत्पन्न हुआ करती है । आत्मानुभूति में कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ-बाधक है। क्रोध, मान, माया और लोम नामक कषायों से उत्पन्न विकारी मनोभाव रागद्वेष के जनक है जिनके कारण चित्त की शुभअशम विषयक परिस्थितियां उत्पन्न हुआ करती हैं। आस्मा इन कषायों से कसी रहती है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति को आत्मानुमति प्रायः नहीं हो पाती । आत्मा जब यह अनुभव करता है कि परपदार्थ सुख प्रदान करते हैं
और अवस्था विशेष में इन्हीं से दुख भी होता है तब उनके प्रति इष्ट-अनिष्ट विषयक भावना राग-द्वेष की मुख्य रूप से उत्पादक है।' इन शुभ-अशुभ परिणतियों के विनाश होने पर शुद्ध आत्मानुभूति से रसोद्रेक होने लगता है।
'वत्यु सहावो धम्मो' अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। बस्तु का प्रभाव उसका व्यक्तित्व है जो अस्तित्व पर निर्भर करता है। वस्तु के प्रभावा१. मोक्षमार्ग प्रकाशक, पं. टोडरमल, सम्तीग्रन्थमाला, वीरसेवा मंदिर,
वरियागंज, दिल्ली, वी. स. २४७६, पृष्ठ ३३६ । । . .