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इस प्रकार अठारहवीं शती से लेकर बौंसी शसो तक प्रजातियों में अनुप्रास अपने प्रमेवों-छेका, बृत्य, श्रुत्य और अन्य के साथ व्यवहत हुमा है। विशेष रूप से पूजा काव्य में छेकानुप्रास की बहुलता दृष्टगोचर होती है। पूजाकाव्य के रचयिताओं के लिए काव्यसृजन का लक्ष्य स्वान्तः सुखाय नहीं अपितु सम्यक बर्शन, शान और चारित्र्य विषयक कल्याणकारी भावनाओं को जनसाधारण तक पहुँचाना अभीष्ट रहा है। यही कारण है कि पूजा काव्य के रचयिताओं ने तत्कालीन काव्याभिव्यक्ति के प्रमुख प्रसाधनों को गहीत कर अभीष्ट उपलब्धि में यथेष्ट सफलता अजित की है। इस दृष्टि से उन्नीसवीं शती में गिरचित पूजाकाव्य कृतियों में अनुप्रासिक अभिव्यक्ति उल्लेखनीय है। पुनरुक्ति प्रकाश__ कथन में पुष्टता उत्पन्न करने के लिए कवियों द्वारा पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का व्यवहार हुआ है । भक्त्यात्मक भावनाओं में पुनरुक्ति कथन से ही शोभा की प्राप्ति हुई है । जैन-हिन्दी-पूजा-काश्य में पुनरूवित प्रकाश अलंकार अठारहवी शती के कवि दयानतराय विरचित 'श्री बीस तीर्थकर पूजा', 'श्री सोलह कारण पूजा,' 'श्री निर्वाण क्षेत्रपूजा" और 'श्री बृहत सिद्ध चक्र पूजा भाषा' नामक पूजाओं में पुनरुक्ति प्रकाश के प्रयोग से अद्भुत ध्वन्यात्मकता और लयप्रियता का संचार हुआ है। १ सीमधर सीमधर स्वामी, जुगमन्धर जुगमन्धर नामी ।
-श्री बीस तीर्ष कर पूजा, दयानतराय, संगृहीत प्रत्य-राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल बस, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ५६ । २-परम गुरू हो जय जय नाथ परम गुरू हो।
श्री गोलहकारण पूजा, वानसराय, संग्रहीताग्य--राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ, १६७६, पृष्ठ
१७५ । ३-परमपूज्य चौबीस, जिहं जिहं पानक शिव पये।
श्री निर्वाम क्षेत्र पूजा, दबानतराय, सगृहीत अन्य, राजेश नित्य पूजा पाठ
संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ३७३ । ४-प्रचला प्रचला उदे कहावं, मारबहे मुखमंग चला।
-श्री बृहत सिख पक पूजा भाषा, पानतराम, संग्रहीतष-बनपूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, मं० ६२, नलिनी सेठ रोग, कलकत्ता-७, पृष्ठ २३८ ।