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तमी होते हैं, जब हमें यह माशंका हो कि उसका कारण हमसे सम्बर।। जब हम अपने प्रिय पात्र को विपत्ति में फंसा देखते हैं तो हमें चिन्ता होने लगती है कि अब क्या होगा ? परिस्थितियां ज्यों ज्यों भयानक होती जाती हैं क्यों त्यों हम चिन्ता में डूबते जाते हैं और धीरे-धीरे स्थिति यहां तक आ जाती है कि हम भय से सिहर उठते हैं । चिन्ता का कारण स्पष्ट ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हम से सम्बद्ध होने के कारण हम भयभीत होते हैं। कहने का मंतव्य यह है कि चिन्ता उत्पन्न होने पर ही भय की भावना सम्भव है।
यह सहज में कहा जा सकता है कि रस विषयक प्राचीन प्राचार्य परम्परा के अनुसार ही पूजा कवयिताओं ने पूजा प्रणयन में किया है। पूजाकाव्य में प्रधान रस शान्त और अन्य रस अंगीय है । अठारहवीं शती से लेकर बोसवीं शती तक रचे गए पूजा रचनाओं में रसोदक की क्या स्थिति रही है? अब यहां उसी नथ्य और सत्य का संक्षेप में उद्घाटन करेंगे।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य परम्परा में 'देवशास्त्र गुरु नामक पूजा' का स्थान महत्वपूर्ण है । इन सभी उपास्य शक्तियों की गण-गरिमा विषयक अभिव्यंजना में निवें व तज्जन्य शान्तरस का उद्रेक हमा है। जैन पूजा काव्य में रस-निष्पत्ति विषयक यह उल्लेखनीय बात रही है कि इसमें रस की सीधी स्थिति परिलक्षित नहीं होती । आरम्भ में सांसारिकभक्त अपनी दोनदुःखी अवस्था से मुक्त होने के लिए प्रभु की वन्दना करता है और उसकी भक्ति भाषना में उत्तरोत्तर प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर विकास-विकर्ष परिलक्षित होने लगता है और अन्ततोगत्वा पूजा काव्य के उत्तर पक्ष में यह पूर्णतः निवृत्तिमुखी हो जाता है। दरअसल विवेच्य काम्य में यहीं पर रस की स्थिति अपना पूर्णरूप ग्रहण कर पाती है । रस की यह पूर्ण विस्था बस्तुतः शान्त रसमय होती है।
पूजा के जयमाल अंश में उपास्य के दिव्यगुणों का उत्साहपूर्वक जयगान किया जाता है । आरम्भ में इस संगायन में रस की स्थिति उत्साहमयी मनुमूत हो उठती है। किन्तु कालान्तर में यही उत्साहजन्य मनोभावना निर तजन्य शान्तरस में परिवर्तित हो जाती है।
अठारहवीं शती में देव-शास्त्र-गह पूजा में आराध्य देव की प्रतिमा. बिम्ब में सुखद भूगार का सुन्दर चित्रण परिलक्षित है यह संयोग भगार