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इनकी वृष्टि में रस और उनके स्थायी भावों को निम्न फनक में एकस्वस्त किया जा सकता है, यथा
स्थायीभाव
१. शृंगार
१. शोमा २. वीर
२. पुरुषार्ष ३. करण
३. कोमलता ४. हास्य
४. आनंद ५. भयानक
५. चिन्ता
६. उमस्ता ७. बीभत्स
७. ग्लानि ८. अद्भुत
८. अचाहता ६. शान्त
है. माया की अवचिता मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इन रसों को दो भागों में विभाजित किया गया है,' था
रागकोटि में रति, हास, उत्साह और विस्मय नामक स्थायी भावों को सम्मिलित किया गया है जिनके द्वारा क्रमशः शृंगार, हास्य, बीर और मदभुत रसों का जन्म होता है। इसी प्रकार देष कोटि में शोक, कोष, भय और जाप्ता जिनके द्वारा कमशः, करुण रोख, भयानक और बीभत्स रसों का निरूपण हुमा करता है।
रागोषोनों का परिमान होने पर वैराग्य-निर्वेद भाव का जन्म होता है।यह अहंभाव की समरसता की अवस्था है। इस अवस्था में स्वोन्मुख रूप से प्रतिभासित होने लगती है।
शान्तरस को वेषमूलक मानने पर आपत्ति हो सकती है क्योंकि रसानुभूति के समय व्यक्ति राण-व बिहीन माना जाता है। इस रस में मिसिक्त प्राणी सुन- चिन्तादि से विमुक्त हो जाता है अतः शान्तको वेषमूलक भाव १. जैन कषियों के हिन्दी काव्य का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन, पंचम अध्याय,
० महेन्द्र सागर प्रचंडिया, मागरा विश्वविद्यालय वापी .सिद उपाधि हेतु स्वीकृत शोध प्रबन्ध, सन १६७४, पृष्ठ ३१४ ।