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जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों का विनाश करके स्वयं परमाहमा बन जाता है । उस परमात्मा की को कोटियाँ होती हैं। यथा
(१) शरीर सहित जीवन्मुक्त अवस्था - यह अवस्था अर्हते की कहलाती है।
(२) शरीर रहित बेह मुक्त अवस्था
- यह अवस्था सिद्ध की कहलाती है ।
महंत भी दो प्रकार के होते हैं
(१) तोषंकर -- विशेष पुष्य सहित महंत जिनके पाँच कल्याणक - गर्म, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष-महोत्सव मनाए जाते हैं, तीयंकर कहलाते हैं ।
(२) सामान्य- इनके कल्याणक नहीं मनाए जाते हैं ।
ये सभी सर्वज्ञत्व युक्त होते हैं अतएब उन्हें केवली भी कहते हैं । जैन धर्म में अर्हन्त शब्द का बड़ा महत्व है। सिद्धावस्था की यह प्रथम श्रेणी है । अर्हम्स सशरीर होते हैं इसलिए आर्य खण्ड में बिहार करते हुए धर्मोपदेश करते हैं। तो कर अरहन्त के समवशरण होता है शेष अरहंत के गंधकुटी होती है ।
सिद्ध- 'सिघ' धातु से 'वत्त' प्रत्यय करने पर सिद्ध शब्द निष्पन्न होता है जिसका अर्थ मुक्तात्मा है। जैन वाङ्मय में सिद्ध अष्टकर्मो से मुक्त आत्मा विशेष है। शुक्ल ध्यान में कर्मों का क्षय करके जो मुक्त होता है उसे सिद्ध कहा गया है।" यह आत्मालोक के ऊर्ध्वं भाग में विराजमान रहती है ।" पर ब्रव्यों से सम्बन्ध टूटने पर मुक्तावस्था की सिद्धि होने से १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, स० २०२७, पृष्ठांक १४० ।
२. झाणे कम्मकख करिवि मुक्कउ होइ अनंतु ।
जिणवर देव हू सो जिविय पामणिउ सिद्ध महेतु ॥
-- परमात्मप्रकाश, योगीन्द्रदेव, राजचन्द्र जैनशास्त्रमाला, बनास, २०२६, दोहा २०, पृष्ठांक ३०४ ।
३. जटुकम्म वेहो लोया लोयस्स जाणबोवट्ठा ।
पुरिसायारो अप्पासिद्धो झाएह लोयसिहरस्यो ।।
- बृहदद्रव्य संग्रह, नेमिचन्द्राचार्य, राजचन्द्र जैन शास्त्रमाया, बागाड, ४० २०२६, श्लोक संख्या ५१, पृष्ठांक १९५ ।