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उत्कर्ष में शान्ति को भूमिका बड़े महत्त्व की है। अस्तु शान्ति भक्ति में स्व-पर कल्यार्थं मंगल कामना की गई है।'
समाधि भक्ति - चित्त के समाधान को हो समाधि कहते हैं ।" सविकल्पक और निविकल्पक नामक दो प्रकार की समाधि होती हैं। मंत्र अथवा पंच परमेष्ठी के गुणों पर चिन का टिकाना सविकल्पक समाधि में होता है ।' rafe भगवान सिद्ध अथवा निराकार शुद्धात्मा में चित्त का केन्द्रित करना वस्तुतः निर्विकल्पक समाधि का विषय है। समाधिधारण कर मोक्ष प्राप्त कर्त्ता से समाधिमरण की याचना करना वस्तुतः समाधि भक्ति कहलाती है ।" समाधि पूर्वक प्राणान्त करना समाधिमरण की संज्ञा प्राप्त करना होता है । अन्त समय में चित्त को पंचपरमेष्ठी में स्थिर करना सरल नहीं है तब चित्त को स्तुति स्तोत्र पाठ तथा समाधि स्थल के प्रति आदरभाव व्यक्त करने में लीन
१. पूजे जिन्हें मुकुट हार - किरीट लाके, इन्द्रादिदेव अरु पूज्य पदाब्ज जाके । सो शांतिनाथ वरवश जगत्प्रदीप । मेरे लिए करहिं शांति सदा अनूप ॥
संपूजकों को प्रतिपालकों को, यतीन को औ यतिनायकों को । राजा प्रजा राष्ट्र सुदेश को ले, कीजे सखी है जिन शांति को दे || हो सारी प्रजा को सुख, बलयुत हो धर्मधारी नरेशा ।
हो वर्षा समयपर तिल भर न रहे व्याधियो का अन्देशा ||
होव चोरी न जारी, सुसमय वरते हो न दुष्काल भारी । सारे ही देश धारें जिनवर वृष को जो सदा सौख्यकारी ॥ घातिकर्म जिननाशकरि, पायो केवल राज ।
शांति करो सब जगत में, वृषभादिक जिनराज ॥
- शांतिपाठ राजेशनित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स अलीगढ़, प्रथम संस्करण १६७६, पृष्ठ २०३ ।
२. धनंजय नाममाला, धनंजय, सम्पादक पं० शम्भूनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण वि० सं० २००६, पृष्ठ १०५ ।
३. परमात्म प्रकाश, योगीन्दु, दूहा १६२, सम्पादक डॉ० ए० एन० उपाध्ये, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, प्रथम संस्करण सन् १६३७ पृष्ठ ६ । ४. वही, पृष्ठ ६ ।
५. समीचीन धर्मशास्त्र, आचार्य समन्तभद्र, वीर सेवा मन्दिर, सरसांवा, प्रथम संस्करण सन् १९५५, पृष्ठ १६३ ।