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पूजाकाव्य में उपास्य-शक्तियाँ
जैन धर्म में गुणों की पूजा की गई है। गुणों के ब्याज से ही व्यक्ति को मी स्मरण किया गया है क्योंकि किसी कार्य का कर्ता यहाँ परकीय शक्ति को नहीं माना गया है। अपने अपने कर्मानुसार प्रत्येक प्राणी स्वयं कर्ता और भोक्ता होता है । गुणों की दृष्टि से जो गुणधारी शक्तियां विवेच्य काव्य में प्रय क्त हैं यहाँ उनके रूप-स्वरूप पर संक्षेप में चर्चा करेंगे ।
देव ( श्री देवपूजा भावा ।'
दिव्यति क्योततिः इति देवः । 'दिव' धातु वय ति धातु से 'अर्थ' प्रत्यय earer देव शब्द froपन्न हुआ जिसका अर्थ फोड़ा करना है अथवा जय की इच्छा करना अथवा स्वर्गीय है ।" इस प्रकार देव शब्द का अर्थ विव्य-दृष्टि को प्राप्त करना है । जो दिव्य भाव से युक्त आठ सिद्धियों सहित क्रीडा करते हैं, जिनका शरीर दिव्यमान है, जो लोकालोक को प्रत्यक्ष जानते हैं यह सर्व देव कहलाते हैं।"
सच्चादेव वही है जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हो । जो किसी से द तो राग हो करता है और न द्वेष वही वीतरागी कहलाता है । वीतरागी के जन्म-मरण नादि १५ दोष नहीं होते, उसे भूख-प्यास भी नहीं लगती, समझ लो उसने समस्त इच्छाओं पर ही विजय प्राप्त करली है ।
१. श्री देवपूजाभाषा, धानतराय, संग्रहीत ग्रन्थ-- - बृहजिनवाणी संग्रह, प्रकाशक व सम्पादक - पं० पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, सितम्बर १९५६, पृष्ठ ३०० ।
२. क्रीडति जदो णिभ्यं गुणेहिं महठहिं दिव्वभावेहिं ।
भासंत दिव्यकाया तम्हाते वणियां देवा ॥
पंच संग्रह प्राकृत | ११६३, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२८, पृष्ठांक ४४० ।
३. जो जागदि पच्यवचं तिपालगुणपञ्चएहि सुजन | लोयालोयं सयलं सो सव्वष्हने देवो ॥
कार्तिकेयानुप्रक्षा, स्वामिकुमाराचार्य, राजचन्द्र जैन शास्त्र माला, जामास, २०१६, गाथा संख्या ३०२, पृष्ठ २१२ ।