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इन सभी भक्तियों के साथ शान्ति भक्ति का स्थान बड़े महत्व का है । जैन कवियों द्वारा शान्ति भक्ति पर आधूत अनेक पूजा-काव्य रचे गए हैं। तीर्थकरों की देशनाएं सर्वथा शान्तिमुखी हैं फिर तीर्थकर शांतिनाथ fare पूजा इस भक्ति का मुख्याधार है ।
इस प्रकार हिन्दी जंन पूजा काव्य में शती तक विवेच्य भक्ति और उसके सभी यहाँ इन सभी पूजाओं के माध्यम से करेंगे ।
कालक्रम से पूजाओं के माध्यम से भक्तिभावना का विकासात्मक
अध्ययन-
आत्मा विषयक सद्गुणों में अनुराग-भाव को भक्ति कहा गया है ।" इन गणों की विकासात्मक श्र ेष्ठ परिणति पंचपरमेष्ठी अपने गुणोत्कर्ष के कारण प्रमुख उपास्य शक्तियाँ हैं । अरहन्त और सिद्ध वस्तुतः देव की कोटि में आते हैं और आचार्य, उपाध्याय तथा साधु-गुरुओं के क्रम में आते हैं । अरहन्तarit को जिनवाणी कहा जाता है ।" कालासर में इसी को जिनागम अथवा शास्त्र जो की संज्ञा दी गई। इस प्रकार पूजा का मुख्य आधार-आराध्य - देवशास्त्र गुरु है । इनके प्रति अनुराग करना वस्तुतः भक्ति को जन्म देता है ।
जैन धर्म में भक्ति मावना को मूलतः दश भागों में विभाजित किया
अठारहवीं शती से लेकर बीसव प्रभेदों का उपयोग हुआ है । अब भक्ति - विकास सम्बन्धी अध्ययन
१. पंडित टोडरमल व्यक्तित्व और कृत्तित्व, डॉ० हुकुमचन्द्र भारिल्ल, पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए–४, बापूनगर, जयपुर, प्रथम संस्करण १६७३, पृष्ठ १७६ ।
२. णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झायाण णमो लोए सव्व साहूणं ||
- मंगल मंत्र णमोकार एक अनुचिन्तन, डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दुर्गाकुण्ड, वाराणसी- ५, प्रथम संस्करण १६६७, पृष्ठ १ ।
३. जम्मुमहद्दहाओ दुवालसगी महानई बूढ़ा । ते गणहर कुल गिरिणो सधे वंदामि भावेण ॥
- चेहयवंदण महाभासं श्री शान्तिसूरि, सम्पादक पं० बेचरदास, श्री जैन आत्मानन्द समा, भावनगर, प्रथम संस्करण, वि० सं० १९७७, पृष्ठ १ ।