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( ५८ ) बोधि भावना दुर्लभ मनुष्यजन्म पाकर मोक्ष प्राप्त करने के लिए रत्नत्रय में मादर माद रखना ही बोधि दुर्लभ भावना है इस प्रकार इस मनुष्य गति को दुर्लभ से भी दुर्लभ जानकर और उसी प्रकार दर्शन, ज्ञान तथा चरित्र को भी दुर्लम से दुर्लभ समझकर वर्शन, ज्ञान, चारित्र का मादरपूर्वक चिन्तवन करना अपेक्षित है।' इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन की उपयोगिता प्रायः असंदिग्ध है। स्वामी कुन्दकुन्द के अनुसार इन भावनाओं के चितवन करने से चिन्तक निर्वाण को प्राप्त कर सकता है।'
उन्नीसवीं शती के कविवर श्री वृन्दावन विरचित 'श्री चन्द्रप्रभ जिन पूजा' की जयमाल में अनुप्रेक्षा के चिन्तवन का उल्लेख हुआ है ।' 'श्री ऋषभनाथ जिन पूजा' काव्य में कविवर बख्तावररत्न ने अनुप्रेक्षा के अनुचिन्तवन से पुण्यराशि प्राप्त होने की चर्चा की है। कविवर मनरंग लाल कृत 'श्री श्रेयांसनाथ जिन पूजा की जयमाल में द्वादश-भावना के चिन्तवन का उल्लेख
१. इय सव्व दुलह दुलहं दंसण-णाण तहा चरित्तं च ।
मुणि ऊण य ससारे महायरं कुणह तिण्हं वि ।। -~-तत्व समुच्चय, अध्याय ७. गायांक ४३, डा. हीरालाल जैन, भारत जैन महामण्डल, वर्धा, सन् १६५२, पृष्ठ २६ । इदि णिच्छय ववहारं ज मणियं कु'द कुद मुणिणाहे । जो भावइ सुद्ध मणो सो पावइ परमणिव्वाणं ॥ --कुद-कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक ६१, प्रथम संस्करण
१६६०, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, पृष्ठ १५३ । ३. लखि कारण हवे जगते उदास ।
चिन्त्यो अनुप्रेक्षा सुख निवास ।। -~-श्री चन्द्रप्रभजिनपूजा, वृन्दावन, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ
काशी, प्रथम संस्करण, १६५७, पृष्ठ ३३७ । ४. इह कारन लख जग ते उदास ।
भाई अनुप्रेक्षा पुण्य रास ॥ -श्री ऋषभनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, वीर पुस्तक भण्डार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८, पृष्ठ १३ ।