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आवश्यकता तो है और इसे किसी न किसी रूप में चार्वाक भी स्वीकार करता है तो भी परलोकाभित कियाओं का आत्मादि पदार्थो का अस्तित्व नहीं मानने वालों के मत में कोई मूल्य नहीं है ।
जैन दर्शन एक आस्तिक दर्शन है। वह आत्मा और उससे सम्बन्धित स्वर्ग, नरक और मुक्ति आदि का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकारता है । आत्मा के सम्बन्ध में उसके समन्वयात्मक विचार है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी है अस्तु आत्मा को भी विभिन्न दृष्टिकोणों से देखता है। आत्मा का वर्णन करने के लिये जैन दर्शन में नौ विशेषताएं व्यक्त की हैं। यहाँ जेन हिन्दी पूजा-काव्य में व्यवहृत आत्मा की सभी विशेषताओं का संक्षेप में मूल्यांकन करना असंगत न होगा ।
जीब सदा जीता रहता है, वह अमर है । उसका वास्तविक प्राण चेतना है जो उसकी तरह हो अनादि और अनन्त है । उसके कुछ व्यावहारिक प्राण भी होते हैं जो विभिन्न योनियों के अनुसार बदलते रहते हैं। आत्मा नागा योनियों में विभिन्न शरीरों को प्राप्त करता हुआ कर्मानुसार अपने व्यावहाfre प्राणों को बदलता रहता है किन्तु चेतना की दृष्टि से न वह मरता है और न जन्म धारण करता है । शरीर की अपेक्षा वह भौतिक होने पर भी आत्मा की अपेक्षा वह अभौतिक है । जीव की व्यवहार नय और निश्चय की अपेक्षा कथंचित भौतिकता और कथंचित अभौतिकता मानकर जैनदर्शन इस विशेषण के द्वारा चार्वाक आदि के साथ समन्वय करने की क्षमता रखता है । यही इसके सप्तभंग-स्याद्वाद तत्व की विशेषता है ।
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आत्मा का दूसरा विशेषण उपयोगमय है । अर्थात् ज्ञान, दर्शनात्मक है। यह नैयायिक और वैशेषिक दर्शनों से समता रखता है । ये दोनों दर्शन भी आत्मा को ज्ञान का आधार मानते हैं। जैन दर्शन भी आत्मा को आधार और ज्ञान को उसका आधेय मानता है। अन्य दृष्टि से आत्मा को ज्ञानाधिकरण की अपेक्षा ज्ञानात्मक भी माना गया है । आत्मा और ज्ञान जब किसी भी अवस्था में भिन्न नहीं हो सकते तब उसे ज्ञान का आश्रय मानने का आधार क्या है ? इस दृष्टि से तो आत्मा ज्ञान का आधार नहीं अपितु उपयोगमय अर्थात् ज्ञान दर्शनात्मक ही है ।
आत्मा का तीसरा विशेषण है अमूर्त । चार्वाक आदि जीव को अमूर्त नहीं मानते । जंग दर्शन में स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध विषयक पौद्गलिक गुणों से