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आने वाले कर्म कमाते हैं। इस सत्य का चिन्लवन वस्तुतः संवर भावना कहलाती है ।"
निर्जरा- भावना - बंधे हुए कर्मों के प्रदेशों के क्षय होने को ही निर्जरा कहते हैं। जिन कारणों से संबर होता है उन्हीं से निर्जरा भी होती है ।" निर्जरा भी दो प्रकार की कही गई है, यथा
१. उदयकाल आने पर कर्मों का स्वयं पककर झड़ जाना ।
९. तप के द्वारा उदपावली बाहय कर्मों को बलात् उदय में लाकर
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खिराना ।
चारों गति के जीवों के पहली निर्जरा होती है और व्रती पुरुषों के दूसरे क्रम की निर्जरा होती है ।"
धर्म - भावना - सर्वज्ञ देव का स्वरूप ज्ञानमय है। सर्वज्ञता प्राप्त करने के साधनों का चिन्तवन करना बस्तुतः धर्म-भावना है। मुनि और गृहस्थ भेद से धर्म क्रमशः दशभेव क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य तथा ग्यारह भेव वर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित त्याग, रात्रिभुक्त व्रत, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग का मूल्य सम्यग्दर्शन पूर्वक होने पर ही निर्भर करता है ।" इसका चिन्तवन करना श्रेयस्कर है।
१. चल - मलिणमगाढं च वज्जिय सम्मतदिढकवाडेण । मिच्छता तवदारणिरोहो होदित्ति जिणेहि गिदिट्ठ ||
- कुन्दकुन्द प्राभुत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक ६१, कुन्दकुन्दाचार्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, मोलापुर, १९६०, पृष्ठ १४८ ॥
२. बंध पदेस सग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहि पण्णत्तं ।
जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिंदि जाण ॥
- कुन्दकुन्द प्राभृत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गामांक ६६, पृष्ठ १४६, वही ।
३. सा पुण दुविहा या सकालपक्का तवेण कयमाणा । चदुग दियाणं पढमा वयजुताणं हवे बिदिया ॥
--कुन्द - कुन्द प्राभुत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक ६७, नही ।
४. एयारस - सदभेयं धम्मं सम्मत पुव्वयं भणियं ।
सागारणगाराणं उत्तम सुहसंपजुतहिं ॥
- कुन्दकुन्द प्राभुत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गावांक ६८, कुन्दकुन्दाचार्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, प्र० सं० १९६०, पृष्ठ १४९