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( ४२ ) सप्तमंग सैली में बंजित किया है। उन्नीसवीं शती के कविवर बसावररल कृत 'श्री अरनाथ जिन पूजा' में जिनवाणी का सप्तर्मग शैली में लिरने का उल्लेख हुआ है। बीसौं शती में कवि हेमराज द्वारा रचित 'श्री गुरूपूजा' काव्य की जयमाल प्रसंग में मन में जिनवाणी को सप्तमम शैली में स्मरण किया गया, उल्लिखित है।'
इस प्रकार जिनवाणी का वैज्ञानिक विवेचन सप्तमंग शैली में ऽयक्त किया गया है। किसी भी सत्य की अभिव्यक्ति के लिए सप्तभंग के अतिरिक्त और अन्य कोई माध्यम उपलब्ध नहीं है। सप्तमंग शैली के विषय में जैन-हिन्दीपूजा-काव्य में प्रारम्भ से ही उल्लेख मिलता है। दैनिक जीवन में बैखरी का व्यापक और वैज्ञानिक साधन सप्तभंग के अतिरिक्त और अन्य दूसरा उपलब्ध नहीं है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में रत्नत्रय का प्रयोग हुआ है । सम्यक् रत्नत्रय को मोम मार्ग कहा गया है। ये रत्न तीन प्रकार के होते है । यथा
१. सम्यक् वर्शन २. सम्यक् ज्ञान
३. सम्यक् चारित्र १. सो स्याद्वादमय सप्त मंग।
गणधर गूथे बारह सुअंग ।। ---श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, धानतराय, श्री जैनपूजापाठ संग्रह, ६२,
नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २० । २. योजन साडे तीन हो, समवसरण रच देव । सप्तभंग वागी खिरे सुन-सुन नर शरघेव ।। -श्री अरनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, बीर पुस्तक भण्डार, मनिहारों
का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८, पृष्ठ १२२ । ३. पंच महाव्रत दुवर धारें, छहों दरब जानें सुहितं ।
सात भंग वानी मन लावें, पायें पाठ रिस उचितं ।
-श्री गुरुपूजा, हेमराज, बृहजिनवाणीसंग्रह, सम्पादक-प्रकाशक पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, राजस्थान, सन् १९५६, पृष्ठ ३१२ । सम्यग्दर्शन शान चारित्राणि मोक्षमार्गः। -तत्वार्यसूत्र, प्रथम अध्याय, प्रथम श्लोक, बार्य उमास्वामि, जैन संस्कृति संबोधक मंडल, हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस-५, द्वितीय संस्करण १९५२, पृष्ठ ९७।