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स्थिर होना ही रहम बावर्य है। इस धर्म के उदय होने पर स्त्री-आसन, स्मरण तथा सम्बधित कथावार्ता का प्रसंग स्वतः समाप्त हो जाता है।'
इस प्रकार जब तक ये धर्म-लक्षण आत्मा में विकसित नहीं हो जाते, तब तक आत्मा आकुलित अर्थात् दुःखी रहती है।
जैन-हिन्दी-पूना-काव्य में बराधर्म का व्यवहार प्रत्येक शती में रचित पूजा रचनाओं में हुआ है । अठारहवीं शती के कविवर धानतराय विरचित 'श्री देवपूना' के जयमाल अंश में वशलमण धर्म को भविजनतारने का माध्यम अभिव्यक्त किया गया है। इसके अतिरिक्त कविवर ने इन धार्मिक लक्षणों के महत्वको ध्यान में रखकर एक पूरा दशलक्षण धर्म-पूजा नामक काव्य हो रब गला है। कषि ने इन वश धमों के द्वारा बहुगति-जन्य बारूण-पुःखों से मुक्ति प्राप्त करने का संकेत व्यक्त किया है।'
उन्नीसवीं शती के कविवर बखताबर रत्न विरचित 'श्री अनन्तनाप जिन पूना' की जयमाल में दशधर्म का उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार बीसवीं शती १. स्त्रीसंसक्तस्य शययादेरनुभूतांगनास्मृतेः ।
तत्कथायाः श्रुतेश्च स्याद्ब्रह्मचर्य हि वर्जनात् ॥ -तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्रीअमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेश प्रसाद वर्णी ग्रन्थ माला, डुमरावबाग, अस्सी, वाराणसी-५, श्लोकांक २१,
पृष्ठ १६६। २. नवतत्वन के भाखन हारे । दश लक्षन सों भविजन तारे ।
-श्री देवपूजा, द्यानतराय, बृहज्जिनवाणी संग्रह, पंचम अध्याय, संपादकप्रकाशक-पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगञ्ज, किशनगढ़, राजस्थान, सन्
१९५६, पृष्ठ ३०३, I ३, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव भाव हैं।
सत्य सोच संयम तप त्याग उपाव हैं। आकिंचन ब्रह्मचर्य धर्म दशसार हैं। चहुं गति दुःखतें काढ़ि मुति करतार हैं ।।
-श्री दशलक्षण धर्मपूजा, यानतराय, सत्यार्थ यज्ञ, जवाहरगंज, जबलपुर, म०प्र०, चतुर्ष संस्करण सन् १९५०, पृष्ठ २२० । ४. दशधर्म तमें सब भेद कहे,
अनुयोग सुने भव शर्म लहे। -श्री अनन्तनाथ जिनपूजा, बल्यावररत्न, वीरपुस्तकभंडार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८, पृष्ठ १८ ।