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मानिसय सम्बन्धन सहित होने वाले मामा के मा-कोमल परिमामों को उत्तम मार्दव कहते हैं। मान, पूजा, कुल, जाति, बल, तितप, शरीर इन मण्ड-मदों के द्वारा मान कवाय की प्रवृति उत्पन्न होती है। इसके अमाव से आत्मा में नम्रता जन्म लेती है, यही वस्तुतः मार्दव भाव कहलाता है।'
मानव-निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ होने वाले मध्य जीव के ऋण अर्थात् सरल परिणामों को उत्तम आजब कहते हैं । मन, बचन मोर काम इन तीन योगों की सरलताका होना अर्थात मन से जिस बात को विचार जाय यही वचन से कही जावे तथा पचन से कही गई बात आचरण में काली माय यह सब कुछ वस्तुतः आर्जव धर्म कहलाता है। इस धार्मिक लक्षण में माया नामक कषाप का पूर्णतः अभाव हो जाता है।
शौच-निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ होने वाले मात्मा के शुधि अर्थात् पवित्र, निर्मल, शुद्ध भावों को उत्तम सोच कहते हैं। प्राणी तथा इनिय सम्बन्धी परिभोग और उपभोग नामक चतुर्मुखो लोमवृत्ति का पूर्णतः अभाव होने पर शौच धर्म का प्रादुर्भाव होता है।
सत्य-निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ अपने मात्मा के सत् अर्थात् शुद्ध, स्वाभाविक एवं शाश्वत् भाव को देख जानकर उसमें तल्लीन होना वस्तुतः
१. अभावो योभिमानस्य परे: परिभवे कृते ।
जात्यादीनामनावेशान्मदानां मार्दवं हि तत् ।। --तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्लोकांक १५, श्रीमद् अमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेश प्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५, प्रथम सस्करण १६७०, पृष्ठ १६४ । 'वाङ्मनः काययोगानामवक्रत्वं तदार्जवम् ।'
-तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्री अमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण १९७०, पृष्ठ १६४। परिभोगोपभोगत्वं जीवितेन्द्रियभेदतः । चतुर्विधस्य लोभस्य निवृत्तिः शौचमुच्यते ॥
तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्री अमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेश प्रसाद वर्णी प्रन्थमाला, डुमराव बाग, अस्सी, बाराणसी-५, प्रथमसंस्करण १६७०, श्लोकांक १६, पृष्ठ १६४ ।