Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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समझ कर उनसे पूछा - भगवन्! क्या आपका भोगों के भोगने का प्रयोजन है? तब कंडरीक मुनि ने हाँ भर दी। तुरन्त राजा पुंडरीक ने कण्डरीक का राज्याभिषेक कर दिया और स्वयं उनका वेष उपकरण आदि धारण कर चातुर्याम धर्म अंगीकार किया और इस अभिग्रह के साथ विहार कर दिया कि जब तक मैं स्थविर गुरु भगवन्तों के दर्शन कर उनके पास से चातुर्याम धर्म अंगीकार न कर लूं तब तक मुझे आहार पानी करना नहीं कल्पता है।
इधर कण्डरीक द्वारा राजा बनने के पश्चात् अत्यधिक सरस पौष्टिक आहार करने से उसका पाचन ठीक प्रकार न होने से उसके शरीर में प्रचुर प्रचण्ड वेदना उत्पन्न हुई। उसका शरीर पित्त ज्वर से व्याप्त हो गया, वह राज्य अन्तःपुर में भी अतीव आसक्त बन गया। कहा जाता है कि तीन दिन इनका उपभोग कर काल के समय काल करके वह कण्डरीक राजा सातवीं नरक में उत्कृष्ट तेतीस सागर की स्थिति में उत्पन्न हुआ। इधर पुण्डरीक अनगार स्थविर भगवन्तों की सेवा में पहुंचा वंदन नमस्कार कर दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया। फिर बेले के पारणे के दिन होने से प्रथम पहर में स्वाध्याय दूसरे पहर में ध्यान और तीसरे पहर में गौचरी पधारे, ठंडा रूखा-सुखा भोजन पान ग्रहण किया, उस आहार से पुण्डरीक मुनि के शरीर में विपुल कर्कश वेदना हुई, उन्होंने उसी समय पापों की आलोचना की, संलेखना संथारा ग्रहण किया
और उच्च भावों से काल के समय काल करके सर्वाथसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में तेतीस सागर की स्थिति में उत्पन्न हुए। तीन दिन का राजसी सुख कण्डरीक को सातवीं नरक का मेहमान बना दिया जबकि तीन दिन का निर्दोष उत्कृष्ट संयम पुण्डरीक मुनि को छोटी मोक्ष अर्थात् सर्वार्थसिद्ध का अधिकारी बना दिया। ___- अति संक्षेप में ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के उन्नीस अध्ययनों की भूमिका हमने यहाँ दी विस्तृत जानकारी तो इन अध्ययनों के गहन पारायण से ही मिल सकेगी। वस्तुतः ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के सभी उन्नीस ही अध्ययन मानव जीवन के आध्यात्मिक विकास के लिए बड़े ही उपयोगी, प्रेरणास्पद एवं महत्त्व पूर्ण हैं। इस आगम का अनुवाद जैन दर्शन के जाने-माने विद्वान् डॉ० छगनलालजी शास्त्री काव्यतीर्थ एम. ए., पी. एच. डी. विद्यामनोदधि ने किया है। आपने अपने जीवन काल में अनेक आगमों का अनुवाद किया है। अतएव इस क्षेत्र में आपका र अनुभव है। प्रस्तुत आगम के अनुवाद में भी संघ द्वारा प्रकाशित अन्य आगमों की शैली का ही अनुसरण आदरणीय शास्त्री जी ने किया है यानी मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन आदि आदरणीय
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