Book Title: Gayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Author(s): Gyansundar
Publisher: Sukanraj S Porwal

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Page 13
________________ [ 8 ] दूसरी प्रशस्त भावना पाठ दंसण णाण चरिते तव वेरग्गे य होइ उ पसत्था । जाय जहा ताय तहा, लक्खण बुच्छ सलक्खणओ 1451 तित्यगराण भगवओ, पवयण पावयणि अइसइड्ढोण । अहिगमण णमण वरिसण, कित्तण संपूयणा थुणणा | 333 जम्मानिय णिक्खमण, चरण णाणुध्वया य णिव्वाणे । दिय लोअ भवण मन्दर, गंदीसर भोम नगरेसुं 1334 अट्ठावय मुज्जिते, गया पयए य धम्मचक्के य । पास रहा वत्तणगं चमरुप्पायं च वंदामि 13351 गणियं णिमित जत्ती, संदिट्ठी अवितहं इमं णाणं । इप एगंत सुबगया, गुणपच्चइया इमे अत्या 1336 } गुण माहत्वं इरिणामकित्तणं, सुरणरद पूया य । पोराण चेइयाणि य, इय एसा दंसणे होइ 1337 . भावार्थ- दर्शन ज्ञान चारित्र तप वैराग्यादिक में प्रशस्त भावना जाननी । तिन में प्रथम दर्शन भावना | दर्शन से (समकित ) की शुद्धि होती है । उसका वर्णन शास्त्र कार करते हैं तोर्थंकर भगवन्त, प्रवचन, आचार्यादि युग प्रधान, अतिशयऋद्धिमान, केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानो, अवधिज्ञानी, चौदह पूर्वधारी तथा प्रामर्षो षधि प्रादि ऋद्धिवाले, इनके सन्मुख जाना, नमस्कार करना, दर्शन करना, गुणोत्कीर्तन करना, गन्धादिक पून

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