Book Title: Gayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Author(s): Gyansundar
Publisher: Sukanraj S Porwal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरत्नप्रभसूरिगुरुभ्यो नमः श्रीमदुपकेशीयगच्छ के मुनि ज्ञानसुन्दर विरचित श्रीगयवरविलास अर्थात 00RRORABBEDARDAR बत्तीस सूत्रों में मूर्तिसिद्ध प्रकाशक व आर्थिक सहयोगी रानी गांव निवासी शा. सुकनराज सागरमलजी पोरवाल शा. हस्तिमल सरदारमलजी धनरेशा शा. मोहनलाल सरदारमलजी धनरेशा -*-* प्रथमावृति 2000 द्वितीयावृति 1000 तृतीय सं0 1000 वि. सं.2055 कीमत 10 रुपये Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभसूरिगुरुभ्यो नमः श्रीमदुपकेशीयगच्छ के मुनि ज्ञानसुन्दर विरचित श्रीगयवरविलास अर्थात बत्तीस सूत्रों में मूर्तिसिद्ध प्रकाशक व आर्थिक सहयोगी रानी गांव निवासी शा. सुकनराज सागरमलजी पोरवाल शा. हस्तिमल सरदारमलजी धनरेशा शा. मोहनलाल सरदारमलजी धनरेशा *-*-* प्रथमावृति 2000 द्वितीयावृति 1000 तृतीय सं० 1000 वि. सं. 2055 कीमत 10 रुपये Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) प्रस्तावना [ प्रथम संस्करण की ] प्रिय पाठको ! प्रतिमा छत्तीसी में बत्तीस सूत्रों में प्रतिमा की सूचना मात्र दरशाई थी। उस पर स्थानकवासी साधु संतोकचन्दजी तथा 'ए, पी. जैन' लश्कर वाले ने अपनी अनादि प्रवृत्ति अनुसार कुयुक्तियां लगाकर बिचारे भद्रिक जोवों का दीर्घ संसार के पात्र बनाने का प्रयत्न किया है । इतना ही नहीं बल्कि मुझ पर भी वृथा आक्षेप और अनार्य वचनों से गालियों की बौछार की है। परन्तु विचारने का विषय तो यह है कि श्री तीर्थंकरों, गणधरों तथा पूर्वाचार्यों के वचन का भी जिन्होंने तिरस्कार कर दिया है वे मुझे गालियां दें इसमें आश्चर्य ही क्या है ? लेकिन विद्वान् इनके लेख को पढ़ेंगे तो अवश्य कहेंगे कि यह कृतघ्नी दयामागियों (?) की दया (?) का सूचक है। यहां मुझे ज्यादा विवेचन करने की आवश्यकता नहीं है । साधु का धर्म क्षमा करने का ही है । इस लिए इन नादानों की बाल चेष्टा पर ख्याल न करके केवल उपकार बुद्धि से ही इस पुस्तक को प्रारम्भ करता हूं। -- - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) पुस्तक लिखने का प्रयोजन प्रतिमा छत्तीसी में लिखा हुआ एक एक अक्षर आगम अनुसार है । तथापि आधुनिक समय में सम्यग् ज्ञान शून्य पुरुषों ने स्त्रकपोल कल्पित अनेक विकल्प उठाए हैं । उनके लिए 32 सूत्रों का मूलपाठ व अर्थ से अच्छी तरह समाधान के साथ ही 'ए. पी. जैन' की कुयुक्तियों का खण्डन स्पष्ट बतलाया गया है, मानें न माने अख्तयार उन्हीं के । अस्तु । __ तत्त्वरसिक-तत्त्व खोजो पुरुषों से निवेदन है कि ऊपर लिखे 'ए. पी. जैन' महाशय के लेख और हमारे लेख की आदिको , से अन्त तक समालोचना करें। ताकि सत्या - सत्य का निर्णय हो जावे । कहा भी है "बुद्धेः फलं तत्त्व विचारणं च + ... ... . एक बात और भी सुनाता हूँ कि जब ये (स्थानकवासी)लोग तेरा पंथिओं से चर्चा करते हैं तब तो हिंसा को गौण कहकर धर्म कार्य में शुभ परिणाम की मुख्यता बतलाते हैं । नदी की मच्छीयों को तालाब में पहुंचाने में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के अनन्त जोवोंको हिंसा होती है । तो भो परिणाम शुद्धि से धर्म-पुन्य मानते हैं। लेकिन जब जिन प्रतिमा के पूजन का वर्णन आवे तब ये (स्थानकवासी) तेरा-पंथियों के बच्चे बन बैठते हैं । हिंसा हिंसा पुकार के भगवान की भक्ति का निषेध करते हैं । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) प्रिय ! सच बात तो यह है कि कोई भी स्थानकवासी 32, 45 या 84 आगम में यह तो बतलावें कि जिन प्रतिमा की वन्दना पूजना से अमुक साधु या श्रावक नारकी में गया । सो तो किसी सूत्र में है नहीं । न आज तक कोई ऐसा प्रमाण किसी स्थानकवासी ने दिया है। साधु श्रावक ने जिन प्रतिमा वन्दी-पूजी है वो अब हम 32 सूत्र में दिखाते हैं। सज्जनों से निवेदन करता हूं कि मुझे गृहवास में संस्कृत का मभ्यास नहीं था। फिर मैंने पहले स्थानकवासीबों के पास दीक्षा ली। उनके अन्दर ऐसा बन्द रखा कि साधु को व्याकरण नहीं पढ़ाना इसीसे व्याकरण पढ़ने को मेरो इच्छा अपूर्ण ही रही। इसी से इस पुस्तक में ह्रस्व-दीर्घ मादि की भूलें रह गई होगी तो सज्जन कृपा करके सुधार कर हमें सूचना देंगे तो उपकार मानते हुए स्वीकार करेंगे । दूसरे संस्करण में वे भूलें सुधारी जावेगी। वीर संवत् 2443 -मुनि ज्ञानसुन्दर CIA Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्री महावीराय नमः || अथ श्री गयवर विलास अर्थात् बत्तीस सूत्र में सिद्ध मूर्ति पूजा प्यारे पाठको ! अब हम प्रतिमा छत्तीसी में कहे हुए सूत्रों से प्रतिमा व प्रतिमा पूजन की सिद्धि करके बतलाते हैं । एक चित्त से ध्यान देकर पढ़ो - आदि मंगल पांच अक्षर दोहा अरिहंत सिद्ध ने आयरिय, उवज्झाया अणगार । पंच परमेष्ठि वांदीने, स्तवन रचुं शुभसा ॥1॥ अर्थ - प्ररिहत श्रादि पंच परमेष्ठि को नमस्कार करके स्तन प्रारम्भ करता हूँ । चार निक्षेपा जिन तणा, सूत्रों में वंदनीक | भोला भेद जाणे नहीं, जिन आगम प्रत्यनीक ॥1॥ अर्थ — सूत्र में भगवान का चार निक्षेपा नाम जिणा जिण नामा, ठबणजिणा पुण जिणंदपडिमा दब्ब जिणा जिण जीबा, भाव जिणा समवसरणत्था || 1 || । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 2 ] श्री वीर प्रभु का चारों निक्षेपा वन्दनीक हैं । (1) वीर प्रभु का नाम लेना सो नाम निक्षेपा । उसे वन्दनीक सब जैनी मानते हैं । इसके बारे में विवेचन करने की श्रावश्यकता नहीं है । (2) वीर प्रभु की प्रतिमा स्थापना निक्षपा है । यह भी वंदन है । इसी को प्राधुनिक नामधारी जैनी ( स्थानकवासीतेरापंथी) नहीं मानते । परन्तु अपने गुरु गुरुणी की 'प्रतिमा' "समाधि" 'पगलिया' फोटू को मानते हैं। जंस मारवाड़ में जेतारण के पास गिरिगांव में स्थानकवासी साधू हरखचन्दजी की तथा रुण ( जिला - नागौर) में हजारीमलजी म०की पाषाण की प्रतिमा है । लुधियाना में मोतीरामजी साधू की समाधि । अम्बाला में लालचन्दनी की समाधि और स्थानकवासी साधू-साध्वोयों के तथा तेरापंथी स्व० आचार्य श्री तुलसी व विद्यमान श्राचार्य महा प्रज्ञजी के संख्या बन्द फोटू मोजूद हैं। उनका तो भक्तिभाव उत्साह पूर्वक करते हैं । जिनकी गति का भी निश्चय नहीं है । और श्री परमेश्वर जो कि निश्चय ही मोक्ष में पधारे हैं। उनकी स्थापना (मूर्ति) की भक्ति पूजा करने में हिचकते हैं । अहो प्राश्चर्य ! आश्चर्य ! | बाजे बाजे ऐसा भी कह देते हैं कि " मूर्ति पत्थर है । अजीब है । इसकी भक्ति में क्या फायदा है ?' । ऐसा कहना अनंत संसार वृद्धि का कारण है । क्योंकि श्री गणधर महाराज ने तो मूर्ति को जिनप्रतिमा फरमाई है । ठवणा सच्चा कहा है । उसे पत्थर कहने वाले को उन्हीं के पूज्य जयमलजी ने प्रतिमा ने प्रतिमा कहे, भाटो कहे ते भ्रषृ " कहा है। ". सूत्र में " अरिहंताणं आसायणाए " अरिहन्तों की प्राशातना - Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 3 ] वर्जने का कहा है । आशातना करने से बोधि-बीज का नाश होता है। हम पूछते हैं कि तुम स्थानकवासी अरिहंत देव को छोड़कर माताजी, पितरजी, रामदेवजी, खेतपाल बावजी, सती माता आदि लौकिक देव को मानता करते हो, सैंकड़ों कोस जासे हो और वांदते पूजते हो । बतलायो ! वे सब मूर्ति हैं या देव हैं ? यदि मूर्ति है तो वह पत्थर की है । माप वहाँ जाकर पत्थर के पास प्रार्थना करते हो या देव के पास ? यदि पत्थर के पास करते हो तो पत्थर तो तुम्हारे घर में भी बहुत हैं । यदि देव के पास करते हो तो घर बैठकर ही करना चाहिए । अब आपको बेधड़क कहना पड़ेगा कि "मूति द्वारा देव से प्रार्थना करते हैं।" भोले भाईयो ! लौकिक देव की मूर्ति द्वारा देव से प्रार्थना करके धन - पुत्र प्रादि प्राप्ति की लौकिक प्राशा को सफल करना चाहते हो, तो लोकोत्तर देव श्री तीर्थंकर की मूर्ति द्वारा प्रार्थना करके अपनी लोकोत्तर - स्वर्ग - मोक्ष प्राप्ति की आशा को सफल करने में क्यों शरमाते हो ? और सुनो ! स्थापना निक्षेपा वंदनीक है। जब धी तीर्थकर भगवान समवसरण में पूर्व दिशा सम्मुख बिराजते हैं और शेष तीन दिशा में भगवान की मूर्ति स्थापन की जाती है । तब तीन दिशा में भगवान की वाणी श्रवण करने वाले सभी उन मूर्ति को देखकर अपने मन में यही मानते हैं कि भगवान हमारे सम्मुख बिराजे हैं। प्रिय ! यह बात सभी जैनी जानते हैं। कदाचित् आप कहो कि इसमें वदने का अधिकार नहीं है । तो सुनो ! सूत्र उववाइ में इसका खुलासा है। देखिए ! " अप्पेगइमा वंदणवत्तियाए अप्पेगइमा पूअणवत्तियार"। इसी से सिद्ध हुमा कि स्थापना निक्षेपा (मूर्ति) वंदनीक है। और सुनो ! पांडव चरित्र Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 4 ] में द्रोणाचार्य की मूर्ति के सामने पभ्यास करके एकलव्य भील ने अर्जुन के बराबर धनुर्विद्या हासिल की थी। प्रिय ! इस बात को स्वमत - परमत वाले सभी जानते हैं। इससे ज्यादा क्या प्रमाण चाहिए। (3) वीर प्रभु का अतीत अनागत सो द्रव्य निक्षेपा । वह भी वंदनीक है । अब पहिले यह समझना होगा कि द्रव्यनिक्षेपा कहते किसे हैं ? वर्तमान वस्तु का अतीत अनागत काल में जो रूपान्तर है, उसी को द्रव्य निक्षेपा कहते हैं। जैसे श्री वीर प्रभु के प्रतीत काल में तीर्थंकर पणे का निश्चय हो गया तब से छद्मस्थ 12 वें गुणठाणे तक द्रव्य तीर्थंकर । वह अनागत । तथा निर्वाण के पीछे भी द्रव्य तोथंकर । वह प्रतीत । यह सब जैनिओं को वंदनीक है। (4) भाव निक्षेपा वीर प्रभु । के-34 अतिशय, पैंतीस वाणो, पाठ प्रातिहार ये सब वन्दनीक हैं। ... (1) नाम निक्षेपा-सूत्र उववाइ में वन्दनीक कहा है । देखो! "महाफलं खल अरिहंताणं भगवंताणं नाम गोयस्स वि" सवणयाए यों नामनिक्षेपा वन्दनीक है। (2) स्थापना निक्षेपा - वन्दनीक है। आचारांग, ठाणांग, समवायांग, भगवती. ज्ञातासूत्र, उपासकदशा, उववाई, रायपसेणीय, जीवाभिगम, उत्तराध्ययन आदि बहुत सूत्रों में लेख है । इसी किताब में आगे अच्छी तरह से खुलासा करेंगे । प्रिय ! यह किताब ही स्थापना निक्षेपा (मूर्ति) को वन्दनीक-पूजनोक साबित करने हेतु लिखी गई है । सो अग्रे देख लेना। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 5 ] (3) द्रव्य निक्षेपा-वन्दनीक है । 1. नंदी सूत्र में देवड्डि गणि खमाश्रमण ने वीर प्रभु के 24 पाट पर हुवे आचायों को वन्दना की है । अब भी देवलोक में गये गुरुत्रों को सभी जैनी वांदते हैं । 2. आवश्यक सूत्र में आदिनाथ भगवान के साधूओं ने चौवीसत्था (लोगस्स) में तेवोस तीर्थंकरों के द्रव्य निक्षपा को वन्दना करी है। लोगस्स में 'अरिहते कित्तइस्सं चउवीसंपि केवली' इससे भी द्रव्यनिक्षेपा वन्दनीक है । और सुनो ! आवश्यक सूत्र साधु प्रतिक्रमण का पाठ" 'उसभाइ महावीर पज्जव साणाणं' तथा 'नमुत्थुणं' वर्तमान काल में बोलते हैं । इससे भी द्रव्य निक्षेपा वन्दनीक साबित होता है । इत्यादि. (4) भाव निक्षेपा-उपवाई सूत्र प्रादि में चन्दनीक है । यों भगवान के चारों निक्षेपापागम प्रमाण से वन्दनीक हैं। फिर भी जो भोले भाई कदाग्रह के वशीभूत होकर वीतराग के वचनों का उत्थापन करते हैं, उन्हें शास्त्रकार प्रत्यनीक कहते हैं । देखिये ! सूत्र ठाणांग ठाणा-3 "सुयं पडुच्च तओ पडिणिता पण्णत्तासुयपडिणीते अत्य पडिणीते तदुभय पडिणीए ।6। इसका अर्थ-सूत्र प्राश्रयी तीन प्रकार के प्रत्यनीक कहे हैं। (1) सूत्र नहीं मानने वाला सूत्र का प्रत्यनीक (बैरी) है । (2)अर्थ को नहीं माने वह अर्थ का प्रत्यनीक (वेरी) है। (3) सूत्र अर्थ दोनों को नहीं माने वह उभय यानि दोनों का प्रत्यनीक है। प्रिय मित्रो ! आप प्रात्मकल्याण करना चाहते हैं तो सूत्र मर्थ की भली प्रकार से प्राराधना करें। बत्तीस सूत्र के मायने, प्रतिमा को अधिकार । सावधान हुइ सांभलो, पामो समकित सार ॥3॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 6 ] अर्थ- बत्तीस सूत्रों में प्रतिमा का अधिकार यानि वर्णन है । उसे साबधान होकर सुनें। जिससे समकित की प्राप्ति होगी । समकित ही जगत में सार पदार्थ है । समकित विण चारित्र नहीं, चारित्र विण नहीं मोक्ष । कष्ट लोच किरिया करी, जन्म गमायो फोक ||4|| अर्थ- समकित के बिना चारित्र नहीं होता है । र चारित्र के बिना मोक्ष नहीं है। देखिए, उत्तराध्ययने प्र० 28 नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं, दंसणे उ भइयव्वं । सम्मत्तवरिताई जुगवं पुव्वं च सम्मतं ॥29॥ नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुंति चरण गुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमुक्खस्स मिव्वाणं 1301 अर्थ सुगम है । भावार्थ ऊपर लिखा है । तथा जिसके समकित नहीं है, उसकी लोचादिक कष्टक्रिया कर्मबन्ध की हो हेतु है । देखिए ! उत्तराध्ययने अध्ययन 20 गाथा 41 चिरंप से मुंडई भवित्ता, अथिरन्वये तव नियमेहि भट्ट । चिरंपि अप्पाणं किलेसइत्ता, न पारए हाइत संपराए ॥ अर्थ- सुगम है। भावार्थ- बहुत काल तक लोचादिक कष्ट करे और जो व्रत तप आदि में अस्थिर है, वह बहुत काल तक आत्मा को क्लेश पहुंचा कर भी संसार के पार न पहुले । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 7 ] _ दीर्घ दृष्टि से विचार करो तो दंसणविवन्नगा का संसर्ग करना भी दुर्गति का कारण है । कहा भी है- उ० प्र० 20 गाथा 44 विसं तु पीय जह कालकूड, हणइ सत्थं जह कुग्राहियं एतो विधम्मो विसओवबन्नो, हणइ वेयाल इवावन्नो अर्थ- सुगम है | भाषार्थ विष मौर शस्त्र के प्रयोग से तो एक भव में मरण होता है । परन्तु कुगुरु की संगति चतुर्गति संसार में भ्रमण कराती है । इसलिए उक्त संगत को छोड़कर शुद्ध ममकित धारी का संसर्ग करो। जिससे अपना कल्याण हो । ― ( । ढाल 1 || आदर जोव क्षमागुण श्रादर । प्रतिमा छत्तोलो सुनो भवि प्राणीं । यह तर्ज ) सूत्रों के अनुसारजी । टेक । आचारांग दूजे श्रुतस्कंधे, पन्दर में अध्ययन मुझारजी । पांच भावना समकित केरी, नित बंदे अणगारजी ॥ प्र० ।। अर्थ - श्री प्राचारांग श्रु० 2 अध्ययन 15 में दो प्रकार की भावना ( 1 ) प्रशस्त (2) प्रशस्त कही है / सो नीचे लिखता हूं । चौदह पूर्वधारी धर्म घुरधर श्राचार्य श्री भद्रबाहु स्वामीकृत नियुक्ति के मूल पाठ में प्रथम अप्रशस्त भावना यदुक्तं पाणिवह मुसादए, अदत्त मेहुण परिग्गहे चेव । कोहे माणे माया लोभे य, हवन्ति अप्पसत्था 145 1 भावार्थ - भावना दो प्रकार की है । प्रशस्त भावना और अप्रशस्त भावना । प्राणातिपात, मृषावाद, प्रदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा क्रोध मान मामा लोभ ये अप्रशस्त भावना जाननी । - Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 8 ] दूसरी प्रशस्त भावना पाठ दंसण णाण चरिते तव वेरग्गे य होइ उ पसत्था । जाय जहा ताय तहा, लक्खण बुच्छ सलक्खणओ 1451 तित्यगराण भगवओ, पवयण पावयणि अइसइड्ढोण । अहिगमण णमण वरिसण, कित्तण संपूयणा थुणणा | 333 जम्मानिय णिक्खमण, चरण णाणुध्वया य णिव्वाणे । दिय लोअ भवण मन्दर, गंदीसर भोम नगरेसुं 1334 अट्ठावय मुज्जिते, गया पयए य धम्मचक्के य । पास रहा वत्तणगं चमरुप्पायं च वंदामि 13351 गणियं णिमित जत्ती, संदिट्ठी अवितहं इमं णाणं । इप एगंत सुबगया, गुणपच्चइया इमे अत्या 1336 } गुण माहत्वं इरिणामकित्तणं, सुरणरद पूया य । पोराण चेइयाणि य, इय एसा दंसणे होइ 1337 . भावार्थ- दर्शन ज्ञान चारित्र तप वैराग्यादिक में प्रशस्त भावना जाननी । तिन में प्रथम दर्शन भावना | दर्शन से (समकित ) की शुद्धि होती है । उसका वर्णन शास्त्र कार करते हैं तोर्थंकर भगवन्त, प्रवचन, आचार्यादि युग प्रधान, अतिशयऋद्धिमान, केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानो, अवधिज्ञानी, चौदह पूर्वधारी तथा प्रामर्षो षधि प्रादि ऋद्धिवाले, इनके सन्मुख जाना, नमस्कार करना, दर्शन करना, गुणोत्कीर्तन करना, गन्धादिक पून Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 9 ] से पूजन करना, स्तोत्रादिक से स्तवन करना इत्यादि दर्शन भावना जाननो । निरन्तर इस दर्शन भावना के भाने से दर्शन शुद्धि होती है। तथा तीर्थंकरों को जन्म भूमि में, निष्क्रमणदीक्षा, ज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण भूमि में तथा देवलोक विमानों के मन्दर मेरुपर्वत के ऊपर, नन्दीश्वर प्रादि द्वीपों में तथा पाताल भवनों में जो शाश्वते चैत्य जिन प्रतिमा हैं उन्हें मैं वन्दना करता हूँ तथा इसी तरह शत्रुजय-गिरि, गिरनार, गजाप्रपद दशार्णकूटतक्षशिला नगरी में धर्म चक्र तथा अहिच्छत्रा नगरी जहां धरणेन्द्र ने पाश्वनाथ स्वामी की महिमा की थी, रथावर्त पर्वत जहां श्री वज्रस्वामो ने पादपोपगमन अनशन किया था। और श्री महावीर स्वामी की शरण लेकर चमरेन्द्र ने उत्पतन किया था इत्यादि स्थानों में यथा संभव अभिगमन, वादन, पूजन, गुणोत्कोर्तनादि क्रिया करने से दर्शन शुद्धि होती है । तथा "गणित विषय में बीज गणितादि - गणितानुयोग का पारगामी है, अष्टांग निमित्त का पारगामी है, दृष्टि वादोक्त नानाविध युक्ति द्रव्यसंयोग का जान कार है, इसको समकित से देवता भी चलायमान नहीं कर सकते हैं, इनका ज्ञान यथार्थ है, ये जैसी प्रागाही करे वैसा ही होता है, इत्यादि प्रावनिक यानि प्राचार्य आदि को प्रशंसा करने से दर्शन शुद्धि होती है । इसी तरह और भी आचार्यादिक के गुण माहात्म्य का वर्णन करने से, पूर्व महषित्रों के नामोत्कीर्तन करने से, सुरेन्द्र-नरेन्द्र प्रादि द्वारा की गई उनकी पूजा का वर्णन करने 1. से तथा निरन्तर चैत्यों की पूजा करने से इत्यादि पूर्वोक्त क्रिया करने वालों के तथा पूर्वोक्त क्रिया की वासना से वासित अन्तः करण वाले प्राणी के सम्यक्त्व को शुद्धि होती है। यह प्रशस्त (दर्शन समकित संबंधी) भावना जाननी । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 10 ] इस लेख से स्पष्ट मालुम हो गया होगा। ज्यादा खुलासा आगे करेंगे। इस पर श्री शीलाङ्काच यकृत टीका में विस्तार किया है । परन्तु पुस्तक बढ़ जाने के भय से वह यहां नहीं लिखा है । विद्वानों के लिए इतना ही प्रमाण काफी है। अगर किसी को देखना हो तो सूत्र देखकर समाधान कर लें। सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध 2 अध्ययन 6 में भी ;दूजे सूयगडांगे छ? अध्ययने, आर्द्र नाम कुमारजी। प्रतिमा देखो ज्ञान ऊपनो, पाम्यो भवनो पारजी ॥प्र! अर्थ - प्रार्द्रकुमार को भी प्रादिनाथ प्रभु की शांत मुद्रा वाली प्रतिमा देखकर जाति स्मरण ज्ञान हुआ था। इस बारे में देखिए निम्नोक्त शोलाङ्काचार्य कृत टीकाअन्यवाऽस्या कपिता राजगहे नगरे श्रेणिकस्य राजः स्नेहाविष्करणार्थ परमप्राभृतोपेतं महत्तमं प्रेषयति, आर्द्रककुमारेणासौ पृष्टो यथा-कस्यैतानि महाण्यित्युग्राणि प्राभृतानि मत्पित्रा प्रेषितानि यास्यन्तीति, असावकथयद् - यथा आर्यदेशे तव पितः परममित्रं श्रेणिको महाराजः तस्यतानीति, आर्द्र ककुमारेणाप्यभाणि - कि तस्यास्ति कश्चिद्योग्यः पुत्रः ? अस्तीत्याह, यद्येवं मत्प्र. हितानि प्राभृतानि भवता तस्य समर्पणीयानीति भणित्वा महार्हाणि प्राभृतानि समाभिहित-वक्तण्योऽसौमद्वच नाद यथाऽऽद्रककुमारस्त्वयि नितरां स्निहयतोति, स च मह Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 11 j तमो गृहीतोभयप्राभृतो राजगृहमगात् गत्वा च राजद्वारपालनिवेदितो राजकुलं प्रविष्टो दृष्टश्च श्रेणिकः, प्रणामपूर्वकं निवेदितानि प्राभृतानि कथितं च यथासंदिष्टं, तेनाष्णसनाशनताम्बूलादिना यथाप्रतिपत्स्या सन्मानित, द्वितीये चाह्नार्द्र ककुमारसत्का न प्राभृतान्यमयकुमारस्य समर्पितानि कथितानि च तत्त्रीत्युत्पावकानि तत्संदिष्टवनानि । अभयकुमारेणापि पारिणामिक्या बुद्धाय परिणामितं- नूनमसौ भव्यः समासन्नमुक्तिगमनश्च तेन मया सार्द्ध प्रीतिमिच्छतोति, तदिदमत्र प्राप्तकालं यदावितीर्थंकर प्रतिमासंदर्शनेन तस्यानुग्रहः क्रियत इति - · , 1 मत्वा तथैव कृतं महार्हाणि च प्रेषितानि प्राभृतानीति उक्तश्चासौ महत्तमो यथा मत्प्रहितप्राभूतमेतदेकान्ते निरूपणीयं तेनापि तथैव प्रतिपन्तं गतश्चासावाद्र' कपुरं, समर्पितं च प्राभृतं राज्ञः, द्वितीये चाहन्यार्द्र ककुमारस्येति, कथितं च यथास दिष्टं तेनाप्येकान्ते स्थित्वा निरूपिता प्रतिमा, तां च निरूपयत ईहापोहविमर्शनेन समुत्पन्नं जातिस्मरणं, चिन्तितं च तेन यथा ममाभयकुमारेण महानुपकारोऽकारि, सद्धर्मप्रतिबोधत इति, त तोऽसावाद्रकः संजातजातिस्मरणोऽचिन्तयत्-यस्य मम देवलोक - भोगैर्यथेप्सितं संपद्यमानैस्तृप्तिर्नाभूत् तस्यामीभिस्तु 1 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 12 ] च्छानुषैः स्वल्पकालीनः कामभोगैस्तृप्तिर्भविष्यतीति कुतस्त्यमिति,एतत्परिगणय्य निविण्णकामभोगो यथोचितं परिभोगमकुर्वन राज्ञा संजातभयेन मा क्वचिद्या-स्थति अतः पञ्चभिः शतै राजपुत्राणां रक्षयितुमारेभे, इत्यादि । भावार्थ-एक दिन आर्द्रकुमार के पिता ने दूत के हाथ राजगृही नगरी में श्रेणिक राजा को प्राभृत (भेंट) भेजी। आईकुमार ने श्रेणिक राजा के पुत्र अभयकुमार के साथ स्नेह करने के वास्ते उसी दूत के हाथ भेंट भेजी । दूत ने राजगृह में जाकर श्रेणिक राजा को भेंट नजर की। राजा ने भी दूत का यथायोग्य सम्मान किया । और दूत ने प्रार्द्रकुमार के भेजे प्राभृत अभयकुमार को दीए तथा स्नेह पैदा करने के वचन कहे । तब अभयकुमार ने सोचा कि निश्चय ही यह आर्द्रकुमार भव्य है । निकट मोक्ष गामी है । जो मेरे साथ प्रीति इच्छता है । फिर अभयकुमार ने बहुत प्राभृत सहित प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा आर्द्रकुमार के लिए भेजी और दूत के द्वारा कहलाया कि इस प्राभृत को एकान्त में देखें । दूत ने जाकर यथोक्त कथन करके प्राभृत दे दीया । प्रतिमा को देखते देखते आर्द्रकुमार को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। धर्म में प्रतिबद्ध हुा । अभयकुमार को याद करता हुआ वैराग्य से काम भोगों में आसक्त नहीं होता हुमा रहता है । पिता ने जाना कि कभी यह कहीं चला न जाबे इस वास्ते पांच सौ सुभटों से पिता हमेशा उसकी रक्षा करता है । इत्यादि। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 13 ] इस पर ए० पी० जैन ने हमारे लिए अभव्य आदि शब्द कह कर इतना परिश्रम उठाया । वह श्रम यदि जिनेन्द्र देवों की भक्ति में लगाता तो महान लाभ उपार्जन करता । भीले भाई ! मापने गयवरचंद शब्द का जो अर्थ किया तथा अभबी आदि कहा तो जब मैं करीब 9 वर्ष आपके (स्थानकवासी) टोलों के अन्दर रहा था। तब तो भव्य था- प्राचारवान् था। अब मैंने अापके टोलों को छोड़कर सत्य धर्म अंगीकार कर लिया तो अभवी हो गया। आपकी प्रवृत्ति की हम क्या तारीफ करें ! आपकी गलीच गालियों का उत्तर विद्वानों के लिए इतना ही काफी है। आचारांग सूयगडांग की दो गाथा नहीं मानने में गालियों के सिवाय शास्त्र का कुछ भी प्रमाण नहीं दिया है । भद्रक जीवों को भ्रम में डालने के लिए "मूल-टीका मूल-टीका" ही की पुकार की है। ___ बन्धुरो ! इस समय में विद्यादेवी (ज्ञान) के प्रचार से विद्वानों की संख्या बढ़ी है, प्रापकी पुकार पर कोई ध्यान नहीं देगा। विद्वान लोग यह विचार अवश्य करेंगे कि चौदह पूर्व के धनी भद्रबाहु स्वामी जिन नहीं पण जिन सरीखे, उनके बचनों का नन्दिसूत्र में सूत्र सम कहा है । यह बात जैनियों को निःशंक मानना ही पड़ेगा। दूसरी बात यह है कि जब पास में दूसरा पक्ष खड़ा होता है तब पक्षपात भी खड़ा होता है । मूर्ति उत्थापक का जन्म वि० सं० 1531 में हुआ था। मेरा हो सच्चा अछत्व है । सच्चा वह मेरा होना चाहिए । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 14 ] प्रिय ! यह बात स्वमत परमत वाले सभी जानते हैं । श्री भद्रबाहु स्वामी वीर सम्वत् 170 में हुए। जिन को करीब 1831 वर्ष का फासला हो गया । इतने वर्ष तक तो श्री भद्रबाहु स्वामी के वचन में शंका करने वाला कोई नहीं हुआ । अब भी जो पढ़े लिखे विद्वान स्थानकवासी हैं, वे तो जैसे तीर्थंकर के वचन वैसे ही श्री भद्रबाहु स्वामी के वचनों को मानते हैं । लेकिन जो अनपढ सम्मूमि पंडित बनकर मन में शका करते हैं उन महोदयों से हम पूछते हैं कि आपको प्राचारांग सूत्र की सम्पूर्ण नियुक्ति में क्षंका है या जहां मूर्ति का जिक्र है वहां शका है ? तब तो कहना हो पड़ेगा कि सम्पूर्ण निर्मुक्ति में शंका नहीं है । सिर्फ मूर्ति के अधिकार में शंका है । तब तो प्रगट मालूम होगा कि आपको मूर्ति से ही द्वेष है । जिससे सम्पूर्ण नियुक्ति को माननी और मूर्ति का अधिकार वे वहां शंका करना ! जब नियुक्ति टीका नहीं माननी तो बतलाओ समकित के बिना चारित्र हो सकता है या नहीं ? जो समकित के बिना चारित्र नहीं होवे तो समकित की भावना सिद्ध हो चुकी । श्रार्द्रकुमार कौन था ? किस नगरी में रहता था ? किस निमित्त से प्रतिबोध (ज्ञान) पाया ? यह सब मूलसूत्र से बतलाना चाहिए । यदि टीका से बताओगे तो टीका में तो स्पष्ट शब्दों में प्रतिमा लिखा है । जो कि हम लिख आए हैं । फिर भी यदि मूल सूत्र ही मानने का आप का हठ है, तो अव्वल यह तो फरमाए कि मूलसूत्र के सिवाय आप कुछ मानते हैं या नहीं ? यदि नहीं मानते हैं तो हमारी बनाई हुई सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली प्रश्न तीजे में 100 प्रश्न मूल 32 सूत्र के ही पूछे हैं। उनका उत्तर मूल सूत्र से दें 15 # प्रश्नमाला में पूछ हुवे प्रश्नों के उत्तर भी मूलसूत्र से दे । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 15 ] सवाल-हम यहाँ पर आप से इतना ही पूछते हैं कि मूल सूत्र मानते हो तो "णमो णरिहताणं" यह जैनियों का प्रथम सूत्र है । इसका अर्थ करें । जवाब-अजी ! इसका अर्थ तो सीधा है। सवाल-अच्छा । मूल सूत्र से अर्थ फरमावें । जवाब- णमो = नमस्कार । अरि = वैरी । हताणं = हनन करने वालों को। सवाल-अरिहंत कोन से वैरी का हनन करते हैं ? जवाब-अजी ! अरिहन्त कर्म वैरी का हनन करते हैं। सवाल-मूल सूत्र में तो कर्म शब्द की गन्ध भी नहीं है। फिर आप किस शब्द का अर्थ कर्म करते हैं ? आप तो मूल सूत्र ही मानते हैं। जवाब-अजी साहब ! सम्बन्ध मिलाने के लिए तो उपयुक्त शब्द जोड़ना ही पड़ता है | नहीं तो सम्बन्ध ही टूट जावे । सवाल-मित्र ! तो फिर टीका मानने में क्यों हिचकते हो। दीर्घ दृष्टि से बिचारो । टीका उसी का नाम है जो सम्बन्ध को मिलावे । देखो ! आचारांग सूत्र में पच महाव्रत को भावनाएं कही हैं। और समकित के बगैर महावत होते नहीं हैं। इसलिए ही भद्रबाहु स्वामी ने सम्बन्ध पर समकित की भावना कही है तथा आर्द्रकुमार के पिछले भव का सम्बन्ध कहा है। उन भगवान का वचन सत्य मानोगे तभी आपका कल्याण होगा। यदि आपको प्रतिमा से ही द्वेष है तो खुल्लं खुल्ला कह देना चाहिए कि 'सूत्र में तो लिखा है, लेकिन हम नहीं मानेंगे Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 16 ] तो प्राप से हमको इतना परिश्रम तो नहीं करना पड़ता । फिर भी यह हमेशा स्मरण रहे कि अब प्रापकी मायावृत्ति चलने की नहीं है । लो ! आपको मूल सूत्र तो मान्य है न ? देखो ! इसमें भी नट मत जाना सूत्र भगवतीजी श० 25 उ० 3 सुतत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्ति मिसिओ भणिओ । सइओ निरवसेसो, एस विहि होइ अणुओगे ॥ भावार्थ - प्रथम सूत्रार्थ देना । दूसरा नियुक्ति सहित देना मोर तीसरा निर्विशेष (सम्पूर्ण ) देना । यह विधि अनुयोग यानि अर्थ कथन की है । इस सूत्र पाठ में तीसरे प्रकार की व्याख्या में भाष्य चूर्णी और टोका का समावेश होता है । इस मूल सूत्र में नियुक्ति मानने का कथन है । यदि उसे नहीं माना तो आपने भगवतीजी को भी नहीं मानी ! कहो ! अब भी आप के दिल में कुछ भ्रम है ? आप ने लिखा कि जड़ वस्तु की भक्ति तुम को जड़ बनायेगो इत्यादि । यह लेख श्रापका कितने दर्जे पर पहुंचा है ? भगवान तो फरमाते हैं कि चेतन का जड़ तोन काल में नहीं होता है और हम जो वीतराग की उपासना करते हैं सो हमें दृढ़ विश्वास है कि वीतराग हम को भी अपने सरीखा बना देगे । परन्तु आप भी पुस्तक पन्न े की उपासना करते हो ! अस्तु, आगे लिखा है कि प्रतिमा देख के तुम को ज्ञान तो नहीं हुआ इत्यादि । मित्र ! मुझे तो क्षयोपशम माफिक ज्ञान है । मगर तप संयम तो आप भी मानते हो, तो फिर तुम्हारे गुरूजी को ज्ञान नहीं उत्पन्न होने से तप संयम को निष्फल मानोगे क्या ? यह आप की प्रज्ञान दशा है । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 17 ] देखो ! प्रतिमा के दर्शन से प्रार्द्रकुमार को ज्ञान उत्पन्न हुमा सो हम लिख पाये हैं। प्रागे प्राचारांग और प्रश्न व्याकरण का अधुरा पाठ लिख के हिंसा हिंसा पुकारी है इत्यादि । __अव्वल तो यह सूत्र पाठ ही असम्बन्ध अधूरा लिखा है । सम्पूर्ण देखना हो तो हमासे बनाई सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली प्रश्न चौथे में मूल सूत्र अर्थ सम्बन्ध से है । यह पाठ अनार्यः मिथ्या दृष्टि के वास्ते फरमाया है । यद्यपि अज्ञान के मारे जैनी नाम धरा के भी मंदबुद्धियों की पंक्ति में मिलने का प्रयत्न किया है । हे प्रिय ! जैनी न तो हिंसा में धर्म मानते हैं न जैनियों के प्रागम में हिंसा में धर्म कहा है, न जैनी हिंसा का उपदेश करते हैं प्राप झूठा कलंक जैनियों पर लगाते हैं न जाने आप को क्या गति होगी! ___ अब हम हिंसा अहिंसा का खुलासा करते हैं । सो ध्यान दे के सुनो卐 तीर्थकर ओघा मुहपत्ति नहीं रखते हैं । _ -समवायांग सूत्र ॐ गौतम स्वामी मुहपत्ति नहीं बांधते थे। -विपाक सूत्रे-दुःख थिपाक विक्रम संवत् 1708 में लवजी स्वामी ने मुहपत्ति बांधने की नई प्रथा चलाई है। संक्षेप गाथा ग्यारवी का अर्थ में Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [ 18 ] अहिंसा और हिंसा की समालोचना [ जैनी ] [ स्थानकवासी ] जैनियों में धर्म उन्नति शासन उन्नति,जाति स्थानक वासीयों की मान्यता मुजब धर्म उन्नति. शास्त्र उन्नति या जाति उन्नति उन्नति पागम या परम्परा अनुसार प्रवृत्ति में जो हिंसा होती है, उसे जैनो स्वरूप को प्रवृत्ति में जो हिंसा होती है उससे हिंसा मानते हैं। स्थानकवासी बोधि बीज का नाश या मंदबुद्धि या नरक गामी मानते हैं। 1 । साधु ग्राम नगर विहार धर्म शासन उन्नति के लिये करे उसमें हिंसा होती है। | ।। साधु ग्राम नगर विहार शासन उन्नति के लिये करे उसमें हिंसा होती है। | 2 | | साधु को रस्ते जाते नदी आवे तो प्राज्ञा मुजब उतरते हैं, इसमें हिंसा होती है। पूर्ववत् । साध को रास्ते जावते नदी आवे तो उतरते हैं इसमें हिंसा होती है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 19 ] साधु को गोचरी जाना, पडि - लेहण करना, गुरु को वन्दन करना, जिन प्राज्ञा है । इसमें भी हिंसा है। पूर्ववत् साधु को गोचरी जाना पडिलेहण करना गुरु को वन्दना करना, इसमें भी हिंसा है ___4 साधु को वरसते वर्षात में ठल्ले-मात्रा | 4 | साधु को वरसते वर्षाद में ठल्ले आना इस जाना इसमें भी आज्ञा है, हिंसा अवश्य में भी हिसा अवश्य होती है। होती है। पुर्ववत् श्रावक कान्फ्रेन्स में हजारों लोग इव? श्रावक कान्फ्रेन्स में हजारों लोग इक्ट्ठ होते हैं शासन उन्नति करते हैं । पूर्ववत् होते हैं । शासन उन्नति करते हैं। ( हिंसा) ( हिंसा) शास्त्र लिखने में, छपाने में शासन उन्नति | शास्त्र लिखने, छपाने में भी शासन उन्नति है। पूर्ववत् ( हिंसा) ( हिंसा) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - [ 20 ] कॉलेज पाठशालादि में धर्म शिक्षा देनी 7 कॉलेज पाठशालादि में धर्म शिक्षा देनी शासन उन्नति । पूर्ववत् (हिंसा) शासन उन्नति । (हिंसा). .. बोडिंग 1 हुन्नरशाला 2 गुरुकुल 3 बाला बोडिग 1 हुन्नरशाला 2 गुरुकुल आदि श्रम 4 आदि पूर्ववत् ( हिंसा ) • हिंसा) मन्दिर बनाते हैं। स्थानक पौषध शाला बनाते हैं। ( हिसा) भगवान की मूर्ति कराते हैं व साधुओं का | अपना गुरु की मूति समाधि पत्र लिया फोटू उतारते हैं। | साधुनों का फोट कराते हैं। तीर्थ यात्रा शत्रु जय, गिरनार, शिखरजी, कितनेक तीर्थयात्रा करते हैं, कितनेक नहि केशरीयाजी प्रादि जाते हैं। करते हैं ।वे भैर, भवानी, रामदेवजी मादि को ध्याते हैं। जिन प्रतिमा की भक्ति करते हैं। गुरु गुरुणी को समाधि पगलिया प्रादि की भक्ति करते हैं। + मारवार गिरी गाम में। हरखचन्द साधु की पत्थर की मूर्ति है। 10 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 | दूर देश में साधु को वंदने को जाते हैं । 1 गुरु को लेने को सामने जाते हैं । नगर प्रबेश भी अति उत्साह से कराते हैं । साधु को पहुंचाने भो जाते हैं । 14 15 16 17 1 18 [ 21 ] | पर्युषण में तपस्या और देव गुरु की अधिक भक्ति करते हैं । दीक्षा महोत्सव करते हैं । 13 14 15 साधु का मृत महोत्सव करते हैं । स्वामी वच्छल करते हैं । 19 । | साधु अपना लेख छापे में छपाते हैं। 241 16 17 18 | दूर देश में साधु को बन्दने को जाते हैं । नगर गुरु को लेने को सामने जाते हैं। प्रवेश प्रति उत्साह से कराते हैं । व साधु को पहुंचाने जाते हैं 2 पर्युषण में तपस्था व साधर्मिक की भक्ति करते हैं और भट्टी भी अधिक जलाते हैं । दक्षा महोत्सव करते हैं । + साधु को मृत महोत्सव करते है । दया पालते हैं। लड्डु खाते हैं । 19 | साधु अपना लेख छापे में छपाते हैं । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 2 3 4 S [ 22 ] शासन की उन्नति की समालोचना ! जैमा रजस्वला धर्म ( M. C ) पाल हैं । शास्त्रजी की प्राशातना टालते हैं और बहुत भक्ति करते है । माधु रात्री पानी रखते हैं । कपड़ा प्रादि पानी से धोते हैं । सूतक मृतक के घर का आहार पाणी नहीं लेते हैं । गो पिशाब म 1 2 3 4 5 [ स्थानकवाशी ] + रजस्वला नहीं पालते हैं कितने ही तो कहते हैं कि 'फोडा फूठा है' इसमें क्या ? शास्त्रजी की सिराने दे देते हैं और भक्ति पूजा नहिं करते हैं । प्रशुचि हाथ भी लगा देते हैं । रात्री को पानी नहीं रखते हैं और दावा करते हैं । कपड़ा यादि नो पाणी कसे भी धोते हैं सूतक मृतक के घरका प्रहार पानी ले लेते हैं । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 8 1 क्षत्रीय, वैश्य, ब्राह्मण को शिष्य बनाते हैं। इनका आहार लेते हैं। हलवाईयों के कढ़ाईयों का धोवण नहीं लेतेहैं । साधु गृहस्थी के घर में धर्मलाभ देके प्रवेश करते हैं । [ 23 ] [ जैनी ] द्विदल का आहार नहि लेते हैं। 7 8 इनके सिवाय नाई, जाट, कुम्हार मेणा, तेली आदि को भी लेते है । इनके घर का आहार भी खाते हैं । 1 बाजार में हलवाईयों की कढ़ाईयों का बाजे कुत्तादिक व झूठा पानी भी ले लेते हैं । दय ! - हिंसा की समालोचना साधू चोर की तरह चुपचाप गृहस्थ के घर में जाते हैं । वहां पर ढ़की उघाड़ी बहु बेटियों को देखते हैं। इसमें कितनी शासन की होलना होती है ! [स्थानकवासी 5 कितनेक तो विदल को समझते ही नहीं जो समझते हैं वो लोलुपपणा से या कायस् वृत्ति से छोड़ नहीं सकते । उसमें प्रसंख्य जीव उत्पन्न होते हैं तो भी वो खाते हैं । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 3 4 5 6 7 L अभक्ष अंनत का गृहस्थी की पच्चखाण कराते हैं और श्राप भी नहीं खाते हैं । वासी आहार जा रस चर्चित जिसमें तार बनता है ऐसा नहीं लेते हैं । गृहस्थी का झूठा ग्राहार नहीं लेते हैं । बतनों का झूठा पानी जिसमें विद्वल यदि हो वो नहीं लेते हैं । गरम पाणी पीते हैं । और निर्बंद धोवण भी । मुहरति हाथ में रखते हैं बोलते समय यतना के लिये मुँह आगे रखते हैं । 24 2 3 4 अभक्ष अंनतकाय नहीं खाने का गृहस्थीयों को उपदेश करते हैं और आप खाते हैं । वासी आहार लेते हैं । और ललिया (तार) जीव नहीं वरजते हैं । गृहस्थी का झूठा आहार लेते हैं । वर्तनों का झूठा पाणी ले लेते हैं, और दावा करते 5 11: 1-1 कच्चे पाणी के घड़े में राख घाटा, दूद ओले कोलडून खेके पा लेते हैं तो कितनेक गरम पाणी भी पीते हैं । मुँह-पती से रात दिन मुहबन्धा रखते है और उनके श्लेष्म नाक के मेल आदि से असंख्य सम्मच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं । मुंह बंधन संवत् 1708 में लवजो ढुंढक साधु ने नया पन्थ चलाया है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 25 ] प्रिय ! ये तो नमूना लिखा है। ऐसे तो अनेक बोल हैं। जितनी शासन की निंदा हो रही है सब इन्हीं लोगों की ऊपर लिखी प्रबुत्ति का ही कारण है । अब स्वयं विचार कर लेवें कि हिसा धर्मी कौन है ? क्या मापने समवायांग सूत्र नहीं सुना ? आप अपराध दूसरे पर डालने से महान मोहनीय कर्म बंधता है । श्राज अापके गुरु लुकाजी जगत में नहीं हैं, तब ही आप हिंमा की गठर चला रहे हो। लुकाजी ने मोहनी कर्म के उदय से जिन प्रतिमा उत्थापी यो परन्तु तुम्हारे सरीखी हिंसा की प्रवृत्ति नहीं चलाई थी जो कि तुम्हारे सरीखी हिंसा की प्रवृत्ति रखता तो कृतघ्नी पंथ कभी नही 1 चलता । प्रश्न – क्यों महात्माजी ! लुकाजी और अभी के स्थानकवासीयों की प्रवृत्ति एक है या भिन्न-भिन्न हैं ? पाठकों ! इन को प्रवृत्ति में जमीन आसमान का फर्क है कृपया फर्क हमें भी सुनाइये । लो सुनो ! परन्तु चमकना मत । नाना सुनाता हूं । उत्तर प्रश्न उत्तर - -- Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 26 ] लकानी की प्रवृति व अभी के स्थानकवासीयों की प्रवृति [लुकाजी] [आज के स्थानकवासी] व्याकरण, न्याय, कोश व अलकार आदि व्याकरण को व्याधिकरण मानते थे। पढते हैं। 32 सूत्र के सिवाय कुछ नहीं मानते थे । । टीका,भाष्य, चूणि नियुक्ति आदि बांचते और नहीं वांचते थे। रास चौवीसीयों को सावध के कह के नहीं वांचते थे। रास चौवीसीयां मोटे पूज्य भी बांचते हैं। अन्य मत के पंडितों से नहीं पढ़ते थे। अब अन्य भत के पंडितों से पढ़ते हैं । 5 मुहपत्ति हाथ में रखते थे। 5 दिन रात मुख बांधते हैं । यह | प्रवृत्ति लवजी से चली है। __ द्विदल खाते हैं और दावा करते हैं। 6* विदल आहार नही खाते थे। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 27 | गोचरी की झोली साधु हाथ की कलाई पर लाते थे । आहार गृहस्थी को नहीं दिखाते थे। | अभी हाथ में लाते हैं घर घर में आहार दिखाते हैं। कोई जगह पात्रे का आहार देखके बालक रोने लग जाते हैं। 8. संखग वंध लुकागच्छ के साधु, यति, श्री. | पूज्य, श्रावक आदि जाते हैं। तीर्थ यात्रा को नहीं जाते थे। स्थानक-धर्मशाला भी नहीं कराते थे। 9 विशेष गामों में स्थानक-धर्मशाला होते हैं। साधु चद्दर की छाती पर गांठ नही लगाते थे। अब खून कसके गांठ लगाते हैं और चोल. पट्टा फकीर टका तमलकी परे पहनते हैं । संख्या बंद श्रावक दूर देशों में साधु को वन्दने को जाना और चातुर्मास पर्युषणा में भट्टियां चलानी इत्यादि बातें नहीं थीं इत्यादि अनेक बोल हैं पुस्तक बढ जाने के भय से नहीं लिखा है। संख्या बंध श्रावक दूर देश में साधु को वदने जाते हैं। चौमासा-पर्युषण में भट्टियां चलाते हैं। कोई गांव में तो बिचारे साधा रण ग पर हजारों आदमी जिमाने का दण्ड पड़ जाता है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 28 ] अब भी आपकी कलई खुलने में कुछ कसर रही है ? इससे ज्यादा देखना हो तो अन्य पुस्तकों में देख लेना । ढूंढक चरितावली या कुमति कुठार में देखो । आयंदा से कुयुक्तियां करने की प्रवृत्ति छोड देना । ये आप के हित के लिये ही मैंने अपना अमोल समय इस कार्य में लगाया है । स्थानकवासी समाज पर मेरा किंचित मात्र भी द्वेष भाव नहीं है। बल्कि मेरे पर जितना स्थानकवासियों का उपकार है, वह हमेशा मानता हूं, प्रति उपकार के लिये ही यह परिश्रम उठाया है । ॥ इति प्रथम द्वितीय गाथार्थ ॥ ठांणायंगे चौथे ठाणे, सत्य निक्षेपा च्यारजी । दसमे ठाणे ठवणा सच्चे, इम भावयो गणधारजी अर्थ – ठाणायंग 4 उ० 2 पाठ - चउव्विहे सच्चे पणते तं जहा - नाम सच्चे, ठवणा सच्चें, दव्व सच्चे, भाव सच्चे । टीकासत्य सूत्र नामस्थापनासत्ये सुज्ञाते, नाम सत्य मनुपयुक्तस्य सत्यमपि भावतत्यं तु । , स्थानवासियों का माना हुआ टब्बा अर्थ-चार प्रकारें सध्य i साच कहयो ते कहेवं नाम सत्य ते रिषभादि 1 स्थापना सत्य भगवंतनी प्रतिमा 2 द्रश्य सत्य जे जीव जिन था से 3. भाव सध्य ते प्रत्यक्ष बैठा जिन 4. ठणांग सूत्र ठाणा 10 में दस प्रकार का सत्य । ठवणा सच्च टोका - C स्थापना सत्य यथा अजिनोपि जिनोऽय मणाचार्यों · Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 29 ] प्याचार्योयमिति) स्थानकवासियों का माना हुआ टब्बा अर्थ (ठवणा) जिन के विरहे जिनपडिमा आचार्य के विरहे स्थापना श्राचार्य ते सत्य । इम गणधर भगवान भाख्यो । जैसा सूत्र में वैसा प्रतिमा छत्तीसी में । तथापि ए.पी. ने लिखा है कि "गयवर चन्द ने लिखा वैसा सूत्र में नहीं है" यह लिखना सत्य है या मिथ्या है ! पाठक वर्ग स्वयं विचार लें । आगे ठेवणा-सत्य को व्यवहार-सत्य कहके लकड़ी घोडे के हेतु लगाये हैं इत्यादि विचार करो । साधु लकडी के घोड़े को घोडा कहते हैं तो सत्यभाषा है । तो फिर वीतराग देव की प्रतिमा को वीतराग कहने में क्यों शरमाते हैं और मूर्ति को पत्थर जड कर के संसार वृद्धि क्यों करते हो ? ( च्यार निक्षेपा वंदनीक । दूजे दुहा के अर्थ में देख लेना ) आगे एक आचार्य का दृष्टांत दिया है | उनका मतलब तीन निक्षपा शून्य बतलाया है । प्रिय पाठको ! (ए. पी ) भगवान का नाम, स्थापना, द्रव्य, तीन निक्षेपा को तो शून्य कहते हैं और चोथा भाव निक्षेपा इस काल में है नहीं। तब तो भगवान का शासन ही विच्छेद हो गया । बाह रे नारिजक ! लै सुन ! में निक्षप का दृष्टांत सुनाता हूं एक विदेशी ने लापरचन्द स्थानकवासी से पूछा कि मुझे किसी महात्मा के पास धर्म श्रवण करना है । तब (स्थान० ने) कहा कि हमारे साधु पूज्य पकोडीमलजी दिल्ली तरफ विचरते हैं । विदेशी ने कहा कि मैं उन्हें नहीं जानता हूं, वे कैसे हैं ? उनका Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 30 ] नक्शा ( फोटू) हो तो बतलाओ । ( स्था० ) हम स्थापना नहीं मानते हैं, जावो ! हर किसी ग्राम में पूछ लेना । तब विदेशी वहां से चला । रास्ते में पूछते 2 एक नगर में कूडापंथी साधू पकोडीमलजी था | खबर होने से विदेशी उनके पास गया कूडा पंथी साधु ने उपदेश दे के अपना शिष्य बना लिया । प्रस्तु 1 1 दूसरा दृष्टांत एक विदेशी सत्यचन्द्र ने किसी जैनी से कहा कि मुझे किसी महात्मा से धर्म सुनना है । जैनी - सिद्धाचलजी के आस पास धर्म धुरंधर जैनाचार्य श्रीधर्म प्रभाकर सूरि विचरते हैं। उनके पास पधारो । विदेशा- वो आचार्य कैसे हैं ? तब जैनो एक पुस्तक विदेशी को दी "इसको पढ़ो " (विदेशी) पुस्तक हाथ में लेके देखने हो प्रथम आचार्य महाराज का शांत मुद्रा वाला फोटू दृष्टिगोचर हुवा इतने ही से सम्यकत्वरत्न की प्राप्ति हो गई । श्रागे देखे तो आचार्य का गृहस्थावास को बाल श्रवस्था का चरित्र और फोटू । आगे व्रतधारी का चरित्र और फोटू देखा । ये तीन अवस्था देख के सिद्धाचलजी की तरफ चला । मार्ग में प्राचार्य का नाम पूछता पूछता एक नगर में जा पहुंचा। वहां एक धर्म प्रभाकर नाम का प्राचार्य सुनकर बिदेशी उनके पास गया । परन्तु मुंह वधा देख के पीछा प्राने लगा । तब ए- पी. सरीखा कदाग्रही विदेशी को कहने लगा । " श्रजी ! भाई धर्म प्रभाकर आचार्यं यही है" विदेशी बोला नहीं जी नहीं, उन आचार्य का फोटू मेरे पास है सो देखो "फेर देखने से सब का चित्त शान्त हो गया । (विदेशी) आगे गिरनार की गुफा में वह नाम और फोटू वाला आचार्य ध्यानरूढ देख वन्दना नमस्कार कर सेवा से उपस्थित हुआ फिर प्राचार्य महाराज का ध्यान समय पूर्ण होने से प्रसन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 31 ) पर विराजे । इतने में दो आदमी आचार्य के पास आये । आचार्य महाराज ने अति गंभीरता व मधुर ध्वनि से वीतराग प्रणीत धर्म सुनाया। लेकिन उन मिथ्यात्वियों को कुछ भी असर न हुआ । तब विदेशी ने विचारा कि "निक्षेपा तो निमित्त कारण है' उपादान कारण तो अपनी प्रात्मा हो है । तो पण निमित कारण की आवश्यकता है, जिससे मैंने इसी प्राचार्य महाराज द्वारा स्थापना से हो धम को प्राप्त किया है और 2 आदमियों को भाव निक्षेपे से भी धर्म प्राप्त नहीं हुआ । अस्तु .. पाठको ! दोनों दृष्टान्तों को ध्यान में रक्खो। प्रथम दृष्टांत में तो कारण स्थापना को नहीं मानो तब भाव कार्य को ही खो बैठे । जो कि कारण स्थापना(फोटू)पास में होता तो कूडा पंथियों में मिल के दीर्घ संसारी न बनता अस्तु दूसरा दृष्टांत का सारांश-पास में (फोटू) था तो मुंह बंधे के जाल से बच गया और प्राचार्य की चार अवस्था और च्यार निक्षेपों के स्वरूप को ही जान लिये और कारण कार्य का भेद को भी समझ लिये । ये कथन सूत्र में है । ज्यादा विवेचन नहीं किया है । आगे सवैया कुडल्या लिख के बहादुरी दिखाई है । इस वास्ते मेरे पास 100-200 मौजूद है। परन्तु बहुत जनों का दिल दुक्खे वैसा लिखना उचित नहीं समझता हूं। आगे लिखा है "तू क्यों फजीती करवाता है" इत्यादि । बंधव ! फजीती सत्य को होवे के असत्य की? जो को है तो माप का लेख पढके चीमटी भर शक्कर आप के मुह में हर कोई दिये सिवाय नहीं रहेगा। सत्य का व्याख्यान तो श्री सीमन्धर स्वामी पाप का मुखारविन्द ने हमेशा करते हैं। इति ।। 3 ।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 32 | अंजन गिरि ने दधिमुखा, नंदीश्वर द्वीप मोझारजी । .. बावन मंदिर प्रतिमा जिनको, वंदे सुर अणगारजी ।। प्र 4 ।। अर्थ-ठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे उ. 2 में बहुत विस्तार है। सम्पूर्ण लिखे तो ग्रन्थ बढ जावे, इसीसे जितना प्रयोजन है, सो पाठ:- . चत्तारि अजणग पव्वया पण्णता चत्तारि जिण पडिमाउ सव्वर यणामयाउ संपलिअंकणिसणाउ थभाभिमहोउ चिट्ठति तं जहा - रिसभा वद्धमाणा चंदाणणा वारिसेणा पण्णता चत्तारि सिद्धायअणा चत्तारि दहिमहगपव्वया पण्णत्ता). इत्यादि मूल सूत्र का पाठ है।ज्यादाखुलासा देखना हो तो सूत्र जीवाभिगमजी से नंदीश्वर द्वीप का अधिकार में अंजनगिरि 4 पुष्करणी बावी 16 दधिमुखा 6 रतिकरा 4 राज्यधानी 16 सिद्धायतन 20 जिन प्रतिमा 2160 मुख-मंडप 20 पिछाधर मंडप 20 स्थुभ स्थ्यपासे जिन पडिमा 320 चैत्यवृक्ष 80 इन्द्रवण 80 80 पुष्करणी 80 वनखंड 320 मणुगलिया 48000 गां माणसिया 48000इतनाप्रधिकारमूलपाठमें है, और 32 कनकगिरि सिद्धायतन जिन पडिमा सहित वृत्ति में है । प्रिय ! यह बात जैनी अच्छी तरह से जानते हैं । 52 चैत्यालय नंदीश्वर द्वीप में हैं । उनको देवता अट्ठाई चौमासी संवत्सरी या जिन कल्याणक में यात्रा करते हैं । इसका लेख जीवाभिगम जंबूदीपन्नत्ति प्रादि सूत्रों में प्रसिद्ध है । शायद आपको अणगार वांदवा में शंका हो तो सुन लीजे, भगवती सूत्र श. 20 उ. 9 चारण में मुनि का पाठयत्-बीइएणं उप्पाएणं णंदिसरे दौवे समोसरणं करेइ । तहि चेइआइं वंदइ वंदइत्ता...... Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 33 ) विस्तार 7 वीं गाथा के अर्थ में देखो । अर्थ - जंघाचारण मुनि दूजे उत्पात में नंदीश्वर द्वीप में समोसरण करे । वहां के चेत्य (प्रतिमा) को वन्दे । बन्धव ! ये गोल मोल है कि मूल सूत्र का पाठ है ' आगे लिखा है कि "सूत्र पाठ नहीं लिखेगा तो अनन्ता तीर्थंकरों का चोर' इत्यादि । प्रिय बन्धव ! अनन्ते तीर्थकर गणधर के फरमाये हुए सूत्र पाठ मैंने लिख दिया है। इसको नहीं माने वो ही चोर है । सत्य का डंका रणकार करता ही रहेगा इति ॥ 4 ॥ थापनाचारज चोथे अंगे, द्वादश ठाणामाँयजी । सत्तरमे समवायंगे जंधाचारण, प्रतिमा वंदन जायजी ।प्र. 51 अर्थ - समवायग सूत्र का बारमा समवायंग का पाठ - यत् - वुवालसावले कित्सिक्कम्मे प. तं. दुओणयं जहाज. यं कित्तिरुम्मं वारसावत्तं चोउ सिरे तिगुत्ते दुपवेसं एग निक्खमणा अर्थ — स्थानकवासियों का माना हुआ टब्बा अर्थ- बारे प्रावतं मांहे ते कृतिकर्म-वांदणा कहा । भगवंत श्री वर्द्धमान स्वामी एते है अवनत बेवेला मस्तक नमाडवो, गुरुनी थापना कीजं । तेह की उठ हाथ वेगला रही पडिक्कमोए, अउठ हाथमांहि भवग्रह कहिये । उभाथका इच्छामि खमासमणो कहिए बिहं वांदणे बिहु वेला मस्तक नमाजिये । पछे अवग्रहमाँहि आवीये । यथा · Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 34 ) जातमुद्रा जन्म अवसरे बालक नी परे बलंटाभरिहाथ जोडि रही कृतकर्म वांदणा 12 आवर्त छ छ वेला गुरू ने पगे वांदणा कीजे । अहो काय काय ए पाठ कहि बिहुला थइ 12 आवर्तन थया । चोसरां 4 वेला गुरूने पगे मस्तक नमाडीये । त्रगुप्ती मन वचन कायानी गुप्त कीजै उपदेश बेवेला वांदणाने अर्थे अवग्रहमाहि आवेने एक निखमण अवग्रहबाहिरि पहले वांदणे एकवेला निकली बोजी वेला गुरू पगे बेठा ज वणीस माफिक एह पाठ कहा एह समवायंग वृत्तिनो भाव | इसमें स्थापना आचार्य खुलासे कहा है । जंघाचारण विद्याचारण मुनि जिनप्रतिमा वांदणे को जाते हैं। सूत्र समवायंग ठा. “17 मूल पाठ । इमोसे जं रयणष्पभाए पुढवीए बहुसम रमणिज्जाउ भूमिभागाउ सातिरेगाइ सत्तरस जायण सहस्साइ उड्ड उप्पेइता ततो पच्छा चारणाण तिरियगती पावतिनि अर्थ - टीका में बहुत विस्तार है । अर्थ - स्थानकवासियों का माना हुआ टब्बा | * श्रये इणी ए रत्नप्रभा पृथ्वी विषे घणी रमणीक समभूमि मान छ तेहे क्की काझेरी के कोस अधिक सतरे जोजन सहस्र लगे उचे उत्पतति उडीने ए तले लवण समुद्रनी शिखालगे उंचा उप्पतति तिवारें पछे जघाचारण विद्याचारणनीतिरछीगति पर्वत तले तिरछी द्विपे रुचिक द्वीपे एम मंदीश्वरद्वीपे जिन प्रतिमा वादिवां बाई जंसा सूत्रार्थ में था वैसा ही प्रतिमां छत्तीसी में लिखा है । तदपि (ए.पी.) कहते हैं " गुरु की वंदना देती स्थापनाचार्य नहीं हैं इत्यादि " Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 35 ) बंधव ! किसी गुरु गम से सूत्र सुगो जो स्थापनाचार्य न हो तो गुरु आदेश किसका लेवे वन्दना किसको देवे ?(अहो कायं काय संफासं) किस को कहे ? (पूर्व पक्ष) हम थापना नहीं माने, साक्षात् गुरु की वंदना करें। . (उत्तर पक्ष) तुम्हारे गुरूजी वदना किस को करै । (पूर्व पक्ष) हमारे गुरुजी ईशान खूण में बंदना करते हैं । (उत्तर पक्ष) खूणा तो अजीव है। . (पूर्व पक्ष) नहीं जी ईशान खण से सीमन्धरस्वामी को बन्दना कर प्रतिक्रमणादि को प्राज्ञा मांग लेते हैं। (उत्तरपक्ष) भरत क्षत्र में शासन किस का है ? (पूर्व पक्ष) महावीर स्वामी का है । (उत्तर पक्ष) फर पाज्ञा सीमन्धर स्वामी को कैसे लेते हैं ? अव्वल तो यह बतावें - माप के माने हुवे 32 सूत्र में सीमन्धरस्वामी का नाम किस सूत्र में है ? दूसरा महाविदेह के साधू का कल्प ही अलग है । प्रतिक्रमण का भी नेम नहीं । पाप लागे तो करे । तीसरा वे भगवान् करोड़ो कोस पर विराजते हैं, उनकी काया का स्पर्श कैसे करते हैं। (पूर्व पक्ष) भगवान तो दूर बिराजे हैं,परन्तु हम ईशान खणे, में भगवान का प्रारोप कर वदना कर लेते है। .... (इसर पक्ष) लो! आखिर तो हस्ते पर पाना ही पड़ा जब परोक्ष में मारोश (थापना) मानते हो, जिससे तो प्रत्यक्ष में ही Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 36 ) मानना ठीक है। जिससे भगवान की आज्ञा और आप का नेम दोनों भी रह जावे, अस्तु । पाठको ! ठाणांग ठाणा 10 तथा समवायंग दोनों सूत्र में स्थापनाचार्य का लेख था। सो हमने बता दिया हैं,और आवश्यकसूत्र में प्रतिक्रमण विधि में भी स्थापनाचार्य कहा है । 4 ज्ञान 14 पूर्वधारी श्री भद्रबाहु स्वामी ने स्थापना कुलक में स्थापनाचार्य का विधि का प्रतिपादन अच्छी तरह से किया है । वो कुलक भी मौजूद है । अस्तु । आगे जंघाचारण मुनि जिन प्रतिमा वन्दन को जावे, जिस का सूत्र अर्थ हम लिख आये हैं । उस पर (ए. पी.) ने गालियों का ही मजा उड़ाया है और मुझे अभव्य श्रेणी में दर्ज किया इत्यादि । पाठको ! जरा शास्त्र का प्रमाण देके गालियां देता तो वाचक वर्ग को कुछ सन्तोष होता । बेचारे भव्य प्रभव्य का निर्णय केवली भगवान सिवाय कोई नहीं कर सकते हैं ये बात जैन सिद्धान्त में प्रसिद्ध है। प्राप और आप के गुरुजी गोशाला जमालीवत् केवली बण गये हो तो जैसा उनका दरजा वैसा ही आप का समझा जावेगा । जेन शासन अखबार का (स्वप्न) का लेख पढ़के ही प्रापकी कदाग्नि भडकी हो । बंधव ! कदाचित् (स्वप्न) सत्य हो जावे तो वो श्री केवलो महाराज के मुखारविंद का फरमाया हुमा है । खैर ! माप मुझे अभवी कहें, परन्तु में तो सब जीवों को कहता हूं कि माप जिन शासन के रसिक हो के अपनी प्रात्मा का कल्याण करें ।।5।। शतक तोजो उद्देसो पहेलो, भगवती में सारजी। चमर इन्द्र सरणा लइ जावे, अरिहंत बिन अणगारजी प्रतिमा० ॥6॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 37 ) प्रथं भगवती सूत्र शतक 3 उ० 1 चमर इंद्र के अधिकार में तीन सरणा पाठ यत्-णणत्थ अरहंते वा अरहंत येइयाणि वा अणगारे वा भावियप्पाणो जोसाए उड्ड उप्पयइ जाव सोहम्मे कथ्ये । भावार्थ- शक्रेन्द्र विचार करता हुआ "चमरइंद्र भी प्रपनी शक्ति से सुधर्म कल्प देवलोक में नहीं था सके सूत्र अब इतना अवश्य है कि अरिहंत । अरिहंतों की प्रतिमा- 2 अणगार भावित आत्मा का धणी की, नेश्राय (सरणों) से ऊर्द्ध लोक में पा सकता है ।" ए तीनों शरणों में से कोई एक शरणा लेके चमरइंद्र ऊर्द्धतक में जा सकता है । परन्तु ये नहीं समझना की एक सरणा लेके जावे तो बाकी -2 शरणा निष्फल हैं । तीन शरणो में से चमरइन्द्र अरिहंत वीर प्रभु का शरणा लेकर गया है प्रोर जिन प्रतिमा तथा प्रणवार का सरमा लेके भी जा सकते हैं । . जैसा अरिहंतों का प्रभाव और प्रासातना है तैसे ही जिनप्रतिमा का प्रभाव और आशातना है । इसीसे ही 3 सरणा, असातना 2 ही कही है । पाठः स 331 बत्-महा दुक्ख खलु तहारूवाणं अरहंताचं । भगवंताणं अणगाराणं व अच्चासायणयाए । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 38 ) . . . अर्थ गम है । इसी का मतलब जो अरिहंतों की प्राशातना है । भेरू प्रादि की मूर्ति को पूठ देने में भेरू की माशातना होती है कारण ? उस मूति में भेरू का प्रारोप है । वैसा ही भगवती सं.10 उ'5 देवता डाढा को प्रशिातना टाले. ऐसा पाठ है और डाढी की भक्ति करते हैं. आशातना पाप है । भक्ति धर्म है और देखो दशवकालिक अ09 उ० 2 गाथा। संघट्टइत्ता काएणं, तहा उहिणामवि । खमेह अवराहं मे, वइज्जा न पुगोत्तिए । भावार्थ -- गुरु की उपधि आदि की पग आदि लगने से आशात ना हो जावे तो गुरु को ही खमावे। उपधि अजीव होते हुये भी गुरू महाराज को उपधि होने से गुरु महाराज की जितनी आशातना होती है उतनी ही गुरु की उपधि पर पैर आदि लगाने से होती है । इसी तरह जिन प्रतिमा के प्रति भी समझ लेना ।(ए. पो.) ने चमर इन्द्र महावीर स्वामी का शरणा लेके गया का पाठ लिखा है इस विषय में हम ऊपर लिख पाये। आगे 4' शरणों में मूर्ति किस शरणा में है ? ऐसा विकल्प किया है । अतः बंधव ! अरिहतों की मूर्ति अरिहन्तों के शरणों में है. और सिद्धों की मूर्ति सिद्धों के शरणों में है। इमो का समाधान भी ऊपर कर आये हैं (प्रश्न) फिर तीन शरणों में जुदा जुदा क्यों कहा (उत्तर) किसी काल क्षेत्र से यदि तीर्थंकरों का योग न हो तो प्रतिमा या साधू के शरणे से जा सकता है परन्तु तुम (अरिहंतचेईयाणि) का अर्थ छद्मस्थ अरिहंत करते हैं ए 4 शरणों में से किस शरणों में है ? जो अरिहतों के शरणों में कहोगे तो पहले पाठ में तो अरिहत का शरणापा गया है । कदाचित् AGE.. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 39 ) साधु के शरणों में कहोगे तो तीसरा प्रमगार का शरणा कह दिया है । कहो! अब मैंने पांचवा शरमा कहा है कि आपने पांचवां शरणा बनाया है ? अब भी कुछ शका हो तो और सुनरे । छदमस्थ अरिहत पांच पदों में कौनसे पद में हैं ? जो अरिहंतों के पद में कहोगे तो अरिहंतों का पहिला शरणा है । जो साधु पद में कहोगे साधु का तो तीसरा शरमा कहा है । बतलाइए ! अनन्ता तीर्थकर के तो 4 शरण 5 पद कहे हैं तुम 5 शरणे और 6 पद कहाँ से लाये ? आप किसी अन्यायी के जाल में पड़ गये हो तो उन से पूछों कि मुझे झठा कदाग्रह में क्यों फंसा दिया ? खैर अब भी जन्म सुधारणा चाहते हो तो श्री वीर प्रभु ! की वाणी का शरणा लो । अस्तु ।। 611 शाश्वती अशाश्वतो प्रतिमा वंदे, दुग चारण मुनिरायजो । शतक बीसमे उद्देशे नवमे, बहु वचन कहयो जिनरायजी। प्रतिमा. 17॥ - अर्थ- भगवती सूत्र शतक 2' उ09 का पाठ में चारणमुनियों ने जिन प्रतिमा वांदी है । सो मूल पाठ है - 2 यत्-जंघाचारणस्स णंभंते ! तिरियं केवतिए गतिविमए 'प. ? गोयमा !से णं इओएगेणं उप्पाएणं रुयगवरे दीवे समोसरणं करेति करइत्ता तहि चेइयाइं वदइ तहि चे ? तओ पडिनियत्तमाणे बितिएणं उप्पाएणं नंदीसर वरदीवे समोसरणं करेति नदो. 2 तहि लेइयाई बंदाइ हिं चेइयाई वं. इहमागच्छइ 2 इह चेइयाई वंदइ, जघाचारणस्स पं गोयमा ! लिरियं एवतिए मइविसए प। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 40 ) जंघाचारणस्स णं भंते ! उडढं केवतिए गतिविसए पन्नतें ? गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेति समो. 2 तहि चेहयाई वंदति तहि चे. 2 ततो पडिनियत्तमाण बितिएणं उप्पाएणं नंदणवने समोसरणं करेति नंदणवने 2 तहिं चेइयाइ वंदति तहि 2 इह आगच्छइ 2 इह चेइयाइं वंदति, जघाचारणस्स णं गोयमा ! उड्ढे एवतिए गतिविसए प. । अर्थ हे भगवन् ! जंघाचारण मुनि का तिरछी गति का विषय कितना है ? गौतम ! एक डिगले में रुचकवर जो तेरमा द्वीप है उसमें समोसरण करे, वहां के चैत्य अर्थात् शाश्वते जिन'मदिर (सिद्धायतन) में शाश्वती जिन प्रतिमा को वोदे, वांद के वहां से पीछे निवर्तता हुआ दूसरे डिगले से नंदीश्वर द्वीप में समवसरण करें, करके वहां वो सभी चैत्यों को वांदे, वांद के यहां के अर्थात भरत क्षेत्र में प्रावे आकर के चैत्य अर्थात् प्रशाश्वती जिन प्रतिमा को वांदे । जंघाचारण की तिरछी गति का विषय इतना है । ता हे भगवन् ! जंघाचारण मुनि का उर्द्ध गति का विषय कितना है ? गौतम ! एक डिगले में पांडक बन में समवसरण करे, करके वहां चैत्यों को वाँदे वांद के वहाँ से पीछे फिरता हुप्रा दूसरे डिगले में नंदन वन में समवस ण करे, करके वहां के चंत्य वांदे, वांद के यहां आवे, आकर के चैत्य वादे गौतम ! जंघाचारण को उर्व गति का विषय इतना है । इसी मुताबिक विद्याचारण है परन्तु उत्पात में फर्क है । प्रतिमा'वांदने का अधिकार सदृश है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 41 ) पाठको ! इस विषय में पागे बहुत चर्चा हो चुकी है । जिस से लंका गच्छो अनेक महानुभावों ने प्रतिमा वंदणी स्वीकार कर लिया है । जैसे संवत् 1610 के लगभग अहमदाबाद में लूका गच्छो पूज्य मेघ जी ऋषि ने प्राचार्य पद छोड के पचीस साधुओं के साथ में जैन दीक्षा ली है । ऐसा तो संख्या बंद प्राज तक चला ही आता है। इस पर (ए. पी.) ने गालियां देने में ही अपना जन्म सफल माना है, प्रागे पहिले तो लिखा है कि चारणमुनि द्वीप देखने को गया है पाके पालोयणा लेते हैं, आगे ज्ञान को वन्दे है, आगे वंदइ है पिण नमसेइ नहीं है। इनके सिवाय दुर्वचनों से कागज काला किया है। पाठको! ध्यान देके सुनो, सामान्य साधु को भी किसी वस्तु को देखने के निमित्त जाने का भगवान् ने निशीथ सूत्र में मना किया है, देखने जावे तो प्रायश्चित कहा है । तो चारणमुनि द्वीप देखने को जाव और भगवान् उसका वर्णन करें, यह बात असंभव है । दूसरा-आलोयण तो रस्ते पाते जाते की है,जैसे मुनि गौचरी से पा के पालोवणा करते हैं परन्तु यह नहीं समझना कि गौचरी गया उसकी आलोवणा है। प्रिय ! पालोवणा तो रस्ते में जाते प्राते प्रविधि की हो सकती है। तीसरा-चैत्य शब्द का अर्थ ज्ञान करा ज्ञान को बन्दे । विचारो! पहिले तो लिखा है कि द्वीप देखने Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 42 ) को गये, अब कहते हैं कि ज्ञान बन्दमे को गये। प्रिय! बाल की भीत कितनी देर की तुम्हारे 32 सूत्र में किसी जगह ( चैत्य ) को शान कहा है तो बतलाना था ।लो! सुनो, नंदी, भगवती,पन्नषणा, अणुयोगद्वार प्रादि बहुत सूत्रों से पाठ-नाणं पंचविहा पण्णता: तथा; अनेक साधु सामायिक आदि 11 अंग 14 पूर्व भणीया हैं । परन्तु 5-11-14 चैत्य नहीं किया और ज्ञान तो एक वचन है और चैइय बहु वचन है । प्रिय ! ज्ञान तो अरूपो है तो क्या उक्त द्वीप में ज्ञान का दिगला पड़ा है ? ज्ञा नको वंदते तो वहां द्वीप में जाने की क्या जरूरत थी ? आगे मुनि अपने स्थान नगर में प्राके असाश्वती प्रतिमा वंदी है । वो क्या अर्थ करोगे ? प्रिय ! भाव ज्ञान तो अरूपी है और स्थापना ज्ञान कहोगे तो प्रतिमा कहने में क्यों शरमाते हो। हमारे कई स्थानकवासी भाई पिण (चैत्य) का अर्थ मन्दिर प्रतिमा करते हैं । (1) प्रश्न व्याकरण प्रश्रवद्वार 1 (चत्य) अर्थ.प्रतिमा उक्त सूत्र प्र० 5 उक्त सूत्र अ) 10 । (2) उपवाई पूर्ण भद्र (चैत्य अर्थ) मन्दिर प्रतिमा। (3) व्यवहार सूत्र चूलका (चैत्य) अर्थ प्रतिमा । (4) ज्ञाता, भगवती आदि में पदों के अधिकार (चैत्य) अर्थ प्रतिमा । तो क्या जिन प्रतिमा के द्वेष वास्ते हो चैत्य का प्रर्थ ज्ञान Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 43 ) करते हो ? आगे सुनो! चैत्य का अर्थ सूत्र में खुलासा प्रतिमा किया है ठा० 3 उ.1 . ... जीव शुभ दीर्घ प्रायु तीन कारण से बांधते हैं । पाठ-"देवीयं चेइय" उववाई में भगवान को बंदने के अधिकार में पाठः "देवयं चइयं" भगवती मादि में ऐसा पाठ बहुत है। इसका अर्थ देवता का चैत्य ( प्रतिमा ) नी परे पाप की सेवा भक्ति करु ( टीका देवतं दैवचैत्यं इष्टदेव प्रतिमा ) आगे वंदे हैं नमसेइ नहीं इत्यादि इसी से मालम होता है कि ये लोग ( नय ) निक्षेपे के ज्ञान से शून्य हैं । जो कि (नय ) का ज्ञान होता तो ऐसा कुयुक्तियां कदापि न करते। बांधव ! यह वचन संग्रहनय का है । इस में सम्पूर्ण चैत्य, वंदन आ जाते हैं उववाइ में एक वचन है ठाणांग सूत्र ( एगे आया ) देखो आचारांगसूत्र में तोर्थ यात्रा कही है । गौतम स्वामी ने अष्टापद को यात्रा करो है । तो फिर शंका ही किस बात की ? जैसा शास्त्र में वैसा प्रतिमा छत्तीसी में है, इत्यादि सूत्रार्थ से सिद्ध हुवा कारण मुनि ने शाश्वतो प्रतिमा वंदो है इति ।। सती द्रोपदी प्रतिमा पूजी । ज्ञाता सूत्र मंक्षार जी । माएविश्रावक अङ्गसात में। सुण तेहुमो अधिकारजी प्र० ।। 8॥ अर्थ - सूत्र माताजो अध्ययन 16 पाठ- . Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 44 ) पत्-तएणं सा दोवह रायबर कन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणे. व उवागच्छइ । मज्जणघरमणुप्पविसइ हाया कयबलि कम्मा कयकोउय मङ्गलपायच्छित्ता सुद्धपावेसाई वत्थाई परिहियाई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ जेणेव जिनघरे तेणेव उवागच्छइ 2 जिनघरमणुपविसइ पविसइत्ता आलोए जिणपडिमाणं पणामकरेइ लोमहत्ययं परामुसइ। एवं जहा सुरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियध्वं जाव धुवं डहइ । धुवं उहहत्ता वाम जाणु अचेइ अंचेइत्ता बाहिणजाणुधरणीतलसि निहट्ट त्तिरक्खुत्तो मुद्धाणं धरणी तलसि निवेसेइ निवेसइत्ता इसि पच्चुण्णमइ करयल जापति कट्ट, एवं वयासी नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव सम्पत्ताणं वन्बइ नमसइ जिनघराओ पडिणिक्खमई । अर्थ - तब सो द्रोपदी राजवर कन्या जहां स्नान मज्जन करने का घर ( मकान ) तहां आवे । मज्जन घर में प्रवेश करे । स्नान करके किया है बलिकर्म पूजाकार्य अर्थात् घर देहरे में पूजा करके कौतुक तिलकादि मंगल, दधि, दूर्वा, अक्षतादि से ही प्रायश्वित दुःस्वप्नादिके घातक किये हैं । जिसने शुद्ध उज्ज्वल Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 45 ) सुन्दर जिनमंदिर में जाने योग्य ऐसे वस्त्र पहर के मज्जन घर में से निकले । जहां जिनघर है वहां आवे । जिनघर में प्रवेश करके देखते ही जिन प्रतिमाको प्रणाम करे । पीछे मोरपीछी लेकर जैसा सू भि देवता जिन प्रतिमा को सतरा प्रकार से पूजे तसे सर्वविधि जानना । सो सूर्याभका अधिकार यावत् धूप देने तक कहना पीछे धूप देके वामजानु (डाबागोडा) ऊंचा रखे जिमणा जानु ( सज्जा गोडा ) धरती पर स्थापन करके तीन बेर मस्तक पृथ्वी पर स्थापे, स्थापके थोडासा नीचे झुकके हाथ जोड़के दशों नखों को मिलाके मस्तक पर अंजली करके ऐसे कहै नमस्कार होवे परिहंत भगवत प्रति यावत सिद्धिगति को प्राप्त हुए हैं। यहां यावत् शब्द से संपूर्ण शक्रस्तव कहना,पीछे वांदना नमस्कार करके जिन घर से निकले। प्रिय! बात जग जाहिर है कि द्रोपदो महासती ने जिनप्रतिमा पूजी पौर नमोत्थुणं किया है । तद्यपि ( ए० पी० ) ने कदाग्रह के वश होके भद्रक जीवों को बहकाने के लिये कुयुक्तियां करी हैं। परन्तु किसी सेठ को एक लोफर प्रादमी ने कहा मैंने तो आपको मर गया सुना था । सेठ ने कहा में तो जिन्दा बैठा हूं । लोफर ने कहा मुझे भला मादमी ने कहा था । प्रस्तु विचारो लापर का कहना सत्य है,या सेठ प्रत्यक्ष बैठा वो सत्य है ? मतलब, हम ऊपर लिख पाये हैं। वीतराग गण Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 46 ) धर का वचन सत्य है कि (ए० पी०) का स्वकपोल कल्पित गपोडा सत्य है ? पाठक स्वयं विचार लेवें। आगे लिखा है कि विधिवाद में पता नहीं मिले तब चरितानुवाद की साक्षी देते हो इत्यादि । . प्रिय ! अव्वल तो आप किसी जैन मुनिकी भक्तिकर विधिवाद चरितानुवाद को समझो । विधिवाद चरितानुवाद किसे कहते देखो ! मेधकुमार, थावच्चापुत्र प्रादि की दीक्षा महोत्सव सूत्र में चली है । प्राप उसको क्या कहोगे? जो विधिवाद कहोगे तो अापके मत का जड मूल से निकंदन हो जायगा । यदि चरितानुवाद कहोगे तो द्रोपदीजी की पूजा की तरह उनका संयम भी चरितानुवाद में कहना पड़ेगा। अब किस बिल से धसोगे? देवानुप्रिय ! तात्पर्य यह है कि गणधर भगवान सम्बन्ध पर कवन फरमाते हैं जिसमें विधिबाद का कथन विधिवाद में समझना और चरितानुवाद का कथन चरितानुवाद में समझना । जैसे मेषकुमार का जन्म से दीक्षा तक विधिवाद में श्रावक प्रतिमा पूजी सो सुतो। ... [4] भगवतो म० १२० 5 तुगीया नगरी के श्राधक Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 47 ) पा० यत् = [ णहाया कयबलिकम्मा ] . टोकार्थ-स्नानान्तरं कृतनलिकम्मैः स्वगृह देवतानां ते तथा । मतलब प्रतिमा पूजी । टवार्थ-हाया-स्नान कीधी।कयबलिकामा-आपणा। घरना देवताने कोधा बलिकर्म अर्थात् प्रतिमा पूजा करो। [ पूर्वपक्ष ] उक्त श्रावकों ने कुल देवी की पूजा करी है । [उत्तर पक्ष प्रिय ! वे भगवान के श्रावक आप सरीखे नहीं सो थे भैरव, भवानो, चण्डी माता आदि को पूजते फिरे । उक्त श्रावक ने तो व्रत लेते हो अन्य देवों को पूजने का त्याग किया है । पाठनो खल मे मते !कप्पई सम्मपनिइंच अन्नउत्थिया! वा अन्नउत्थयदेवयाणिवा इत्यादि इस पर गणधर भगवान ने मौहर छाप लंगा वी है। वो भी सुन लीजिये। (असहिज्जदेवा सुरनाम सुबण्ण जक्ख रक्खम किपर (किपुरिस) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 48 ) अर्थ-श्रावक कोइ देवता का साज नहीं वंछय न वांदे, न पूजे । इतने पर भी कुल देवी पूजने का भ्रम दूर न हुवा हो तो मोर सुन लीजिये । श्रीशाता सूत्र अ0 8 श्रीमल्लिनाथ जी ने भी जिन प्रतिमा पूजी का पाठ - (हाया कयबलिकम्मा) सिद्ध हुआ। (2) भगवती श० 7 उ. 9 वर्णनागनतुवेजी ने प्रतिमा पूजी। (3) भगवती श0 11 1० 12 पालभिया नगरीका इसीभद्र पुत्र प्रादि बहुत श्रावकों ने जिन प्रतिमा पूजी । (4) भ० स० 12-1 मंख पोखली प्रादि ने जिन प्रतिमा पूजी _(5) भ० स० 12-2 जैवंती, मृगावती, उदाई राजा ने प्रतिमा पूजी मोर भी उदाइराजा मंडुक, श्रावक कार्तिक सेठ पादि का अधिकार है। (6) माता प्र. 5 यावच्चा पुत्र प्रादि 2500 सौ मुनि श्री शत्रुञ्जय तीर्थ पर पधारे हैं। .. (7) ज्ञाता अ. 8 मल्लिनाथ प्रभु ने प्रतिमा पूजी और प्राचारंगादि 5 सूत्र तो लिख पाये हैं । 26 सूत्र अगाडी लिखूगा सों देख लेना मागे (2) प्रश्न किये हैं [1] क्या तुम्हारे मूर्तिपूजकों की कन्याएं पांच पति कर सकती हैं ? [2] प्रश्न-क्या तुम्हारे मूर्ति पूजने वालों के विवाहों में म Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 49 ] मदिरा मांस पकाकर अपने सम्बन्धियों को खिलाया जाता है । जो कि द्रोपदी के विवाह में ये दोनों कार्य हुए हैं। ( उत्तर ) मित्र ! द्रोपदीजी के लग्न समय कृष्ण वासुदेव आदि बड़ 2 राजा आये थे। उनकी साक्षी से महासती, द्रोपदी जी ने पूर्व नीयाणे के प्रभाव से 5 पति वरे थे । जिसको श्री कृष्ण वासुदेव ने भी कहा है [सुवरियं] याने भला वरिया । अब भी आपको कुछ भ्रम हो तो सुनो ! वीर भगवान ने मुखारवींद से कहा है कि चेलना महासती है, इसको तो आप भी मानते हो, जब चेलना जी को दोहला के समय अभय कुमार ने किस का आहार कराया था ? वो निरयावलीका सूत्र में खुलासा है, वो कारण से किया हुआ कार्य अब भी आप कर सकते हैं ? ... (पूर्वपक्ष. अजी ! हम ऐसा कार्य किस वास्ते करें ? महासती के तो पूर्वभव का सम्बन्ध था। [उत्तर ] प्रिय मित्र ! यही आपके प्रश्न का उत्तर है । जैसे चेलणा महासती ने पूर्व सम्बन्ध से अनुचित आहार किया, वैसे ही द्रोपदी महासतो ने पांच पति वरिया। प्रश्न 2 ] उत्तर - पाठकों ! ऐसे अनार्य वचन लिखते इन को कलम के सीचली होगा । खैर ! उत्तर सुनो, जैन सिद्धान्त में मदिरा मांस का प्राहार न तो द्रोपदी जी ने किया है न उन के सम्बन्धी कृष्ण वासुदेव, पांडव आदि ने किया है, न कोई जैनी करते हैं। ... आगे 6 प्रकार के प्राहार का पाठ लिख के कहा है “उस वक्त द्रोपदी को समकित नहीं थो" इत्यादि । | उत्तर ] 6 प्रकार के आहार का कारण यह है कि उस वक्त कोई समकिती कोई मिथ्याती राजा आये थे। उन्हीं की Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 50 ] भूल राजनीति के अनुसार प्रबन्ध किया था। इस में द्रोपदी महासती को मिथ्यात का कलंक देना, प्रिय ! यह बात कितनी की है । ( पूर्वपक्ष ) द्रोपदी को समकित होती तो उनके घर में 6 प्रकार के आहार किस वास्ते होते ? ( उत्तरपक्ष ) यदि घर में आहार होने से ही मिथ्याती कहते हैं तो सुन लीजिये ( 1 ) सूत्र उपासकदशा अ० 8 महाशतक श्रावक के घर में 6 प्रकार का आहार होता था और महाशतक की स्त्री (रेवती) 6 प्रकार का आहार करती थी। इसमें महाशतक श्रावक का श्राक्कपना मानते हो या नहीं ? राजा की पुत्री इकट्ठे किये थे ! ( 2 ) सूत्र उत्तराध्ययन अ० 22 उग्रसेन राजमती के विवाह के अन्दर हजारों जानवर श्रीनेमनाथ प्रभु आदि जान (बरात) लेके पधारे थे अब फरमाएँ राजमतीजी के समकित में कुछ शंका है. देवी राजमतीजी के वास्ते गणधर भगवान ने फरमाया है ( संजताए सुभासिय ) राजमती जो को संजती कहा है । लो राजमती को तो आप भी मानते हैं न ! क्या उनकी तरह आप भी विवाह में जानवर इकट्ठे करते हैं ? तब आप को कहना ही पड़ेगा कि उग्रसेन राजा तो समकिती था । परन्तु विवाह में प्राये हुए कितने ही राजा उनके साथ में मिथ्याती थे, इस वास्ते जानवर इकट्ठे किये थे । बन्धु ! राजमती जी श्रौर द्रोपदी जी दोनों समकित में अव्वल मानी गई हैं । 1 जैसा मजमान वैसी सरभरा. 2 उग्रसेन राजाकु जेठमल ढुंढकने भी सम्यक्ती लिखा हैं । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 ] प्रिय ! जरा तो परभव का डर रखना था! द्रोपदीजी के घर में जिन मन्दिर और भगवान की पूजा करने वाली को मिथ्यातवी कहना कितना अहित का कारण है, आगे लिखा है कि द्रोपदीजी ने मूर्ति पूजी वो अरिहंत की नहीं थी, कामदेव की थी इत्यादि। अहो कर्म गति ! मुझे आश्चर्य उत्पन्न होता है कि इस हठाग्रही जीव को केवली महाराज भी शायद ही समझा सकें । भोले भाई ! सूत्र में (जिनपडिमा ) कही है । जिस को प्राप कामदेव ( इलाजी ) कहते हैं तो ( कामदेव पडिमा) ऐसा कोई सूत्र का पाठ तो लिखना था। दूसरा नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं इत्यादि नमोत्थुणं का गुण कामदेव में है कि अरिहंतों में है ? मझे आप की अनुकंपा आती है । आप किस हठाग्रही के फंदे में फंस गये । क्या आप तिग्णाणं तारयागं कामदेव को ही समझते हैं ! अस्तु सत्यार्थ चन्द्रोदय का उत्तर ढूढक हृदय नेत्राजन में देख लेना । कितने लोग कहते हैं कि द्रोपदी ने पूर्व भव में नियाणा किया था इत्यादि उनका समाधान हमारी बनाई सिद्ध प्रतिमा मुक्तावलि में हमने अच्छी तरह से खुलासा कर दिया है । जिस में यह नहीं लिखा है अस्तु आनन्द श्रावक का अधिकार सातवां अंग उपासक दशा सूत्र में है । सो मागे सुनो।।8।। अन्यतीर्थी ने उणरी प्रतिमा, 'नहि वंदु जावजज्जीवजी' स्वतीर्थारीप्रतिमाबंदु,ज्यां ने बंछे समकित्तजीवजी प्रतिमा है। अर्थ-सुगम सूत्राक्षर । सूत्र उपासक दशा अ० 1 मूल पाठ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 52 ] - नो खलु मे भंते कप्पइ अज्जपभिइं च णं अन्नउत्थिया वा अन्नउत्थियदेवयाणिवा अन्नउत्थिय परिग्गहियाइं अरिहंतचेइया. ... इंवा वंदित्ता वा नमंसित्ताए वा। १(टीका)नो खलु इत्यादि।नो खलु मम भदंत भगवन! कल्पते युज्यतेअचप्रभृतिइतःसम्यक्त्व प्रतिपत्ति दिनादस्य निर. 'तिचार सम्यक्त्व परिपालनार्थतदयतनामाश्रित्य अन्न उत्थि एति जनयूथाद्यदन्यदयूथं संघान्तरमित्यर्थस्तदस्ति येषां तेअन्ययूथिकाश्चरकादिकुतीथिकास्तान अन्य यूथिकदैवतानि .. बाहरि हरादोनिअन्ययूथिक परिगृहितानि वा अहँच्चैत्यानि अहंत प्रतिमालक्षणानि,यथाभौतपरिगहीतानि रुद्रमहाकालादीनिवदितु अभिवादनतकर्तुं नमस्यतुवाप्रणामपूर्वक प्रशस्तध्वनिभिर्गुणोत्कीर्तनकर्तुम तेषा मिथ्यात्वस्थिरोकरणादिदोषप्रसङ्गादित्यभिप्रायः ।। . 2 अर्थ- हे भगवन् ! मुझ को न कल्पे । क्या न कल्पे सो कहते हैं। आज से लेके अन्यतीर्थी -चरकादि अन्यतीर्थी के देव हरिहरादिक और अन्य तीर्थी के ग्रहण किये अरिहंत के चैत्य- जिनप्रतिमा इनको वंदना करना नमस्कार करना । इस विषय में (ए. पी.) ने खूब धूर्तता से चालाकी करी है । । प्रिय ! आपकी धूर्तता बहुत समय तक चली, परन्तु अब चलने की नहीं है । सुन लीजिये ! सूत्र पाठ हम ऊपर लिख आये हैं । उसमें . (अन्न उस्थिय परिगहियाई अरिहंतचेइयाई वा पाठ है) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 53 ] [ए. पी.] ने [अण्णउत्थिय परिग्गाहयाणि वा चेतिता वा] इन दोनों पाठों का मतलब एक ही है । परन्तु जैन सिद्धान्तों के रहस्य का अनजाण [ए. पी.] ने श्रीमान् आत्मारामजी पर भी वृथा आक्षेप किया है, प्रथम तो दोनों पाठों में | अरिहन्त | शब्द का फर्क सुन लीजे | ए. पी. ] का किया हुआ अर्थ"मतका ग्रहण कर लिया है ज्ञान ऐसे भ्रष्टाचारी साधू को वंदना नमस्कार करना नहीं । अब कह ! तेरी प्रतिमा कौन से बिल में चूहा खींच ले गये ?" | ऐसा अर्थ किसी स्थानक वासियों के माने हुवे किसी सत्र में तथा खण्डन मण्डन की पुस्तकों में नहीं है । न जाने ( ए. पी.) कौनसे चूहों के बिल से निकले? अब हम पूछते हैं कि तुम्हारा लिखा हुआ पाठ अण्णउधियपरिग्गाहयाणि वा.) का क्या . अर्थ है ? तब उनको कहना ही पड़ेगा कि. (अन्य तीर्थ ग्रहण . किया) आगे (चोतिता वा) का क्या अर्थ है ? खोटा अर्थ करेगा तो पिण ज्ञान तथा साधु दोनों में से एक कहेगा । चाहे ज्ञान, चाहे साध, परन्तु आपने तो मन की मौज से चैत्य का अथ ज्ञान और साधू दोनों कर दिये हैं । खैर ! दोनों शब्द मिलके अन्य तीर्थी ग्रहण किया ज्ञान या साधु हुआ, तो फेर अन्नउत्थियपरिग्गहियाई अरिहंतचेइयाइं वा) कहने का क्या मतलब था? वो तो पहला पाठ (अन्न उत्थियाय) में ही आ गया। जो कहेगा कि ( अरिहंता) का ज्ञान तथा सरघा से भ्रष्ट हुआ साधु को नहीं वंदे । तो हम पूछेगे कि अरिहंत शब्द तो तुम मानते नहीं फिर अरिहंत शब्द कहां से निकाला ? कदाचित कहोगे कि सम्बन्ध पर प्रक्षेष करना पड़ता है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ] भोले भाईयो ! प्रक्षेप से कहना अच्छा समझना और सूत्र में है उसको बुरा समझना । कितनी अज्ञानता है ! सिद्ध हुवा कि तोसरे पाठ में अरिहंत शब्द है । खैर ! आगे सुनिये। अरिहंत का साध भ्रष्ट हो के अन्य मत में चला गया उन को अरिहंतां का साधु कहना तो आप सरीखा निरक्षरों को ही घटते हैं । जैन सिद्धांतों में तो उनको अन्य तीर्थी ही कहा है सो पहिले पाठ में आ गया है। देखिये ! ज्ञाता सूत्र में सुकदेव संन्यासी, भगवती में खंदक संन्यासो, शिवराजकृषेश्वर, पोगल संन्यासी तथा कालोदेई आदि अन्य मत को श्रद्धा छोड के भगवान् के पास दीक्षा लेने से भगवान् का ही साधु कहलाया था । आपके कहने से तो अरिहंतपरिग्गहिया अण्ण उत्थीय चेइयाणि व) होना चाहिये । परन्तु ऐसा पाठ गणधर महाराज ने नहीं फरमाया। सिद्ध हुआ तीसरे पाठ में चैत्यशब्द का अर्थ प्रतिमा है। (पूर्व पक्ष ) सूत्र में ऐसा पाठ तो नहीं कि आनन्द ने प्रतिमा वंदनी राखी। आप ऐसे किस प्राधार से कहते हैं ? (उत्तरपक्ष ) प्रिय ! सूत्र तो खुलासा पुकार रहा है, परन्तु आपकी अज्ञान दशा से प्रापको मालूम नहीं पड़े तो अज्ञान - चश्मे को उतार के देखो । आनन्द श्रावक ने भगवान के साधु को वन्दना करना, किस पाठ में रखा है सो बतला दो। (पूर्व पक्ष ) अजी ! पहले पाठ में अन्य तीर्थी को नहीं वंदे स्व तीर्थों को वन्दना आपसे ही सिद्ध हो गया। जंसे झूठ बोलने का त्याग करने से सत्य बोलना आपसे ही रह गया ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं। ( उत्तर०) प्रिय ! बोलना तो न्याय, चलना अन्याय । यह Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 55 ] किसने सिखाया ! जब पहले पाठ से साधु वंदना सिद्ध किया तो दूसरे पाठ में अन्यतीर्थों का देव हरिहलधर की मूर्ति नहीं वंदे तब अरिहंतों को मूर्ति वंदनी श्रापके कहने से सिद्ध हो गई। फिर सिरपच्ची किस बात की ? ( पूर्वपक्ष ) हम पूजा पाठ में मूर्ति का अर्थ नहीं करेंगे खास हरिहलधर का अर्थ करेंगे 1 ( उत्तर पक्ष ) प्रिय ! आप का किया अर्थ कोई विद्वान् प्रमाणिक नहीं गिनेगा। प्रमाणिक अर्थ वेही हैं कि जो पूर्व प्राचार्य कर गये हैं । हम आप से इतना ही पूछते हैं कि आनन्द श्रावक ने. अन्य तीर्थियों का भाव निक्षपा वन्दना छोडा है कि 4 निक्षेपा वन्दना छोडा है ( स्याम किया है ) ? ( पूर्व ० । श्रानन्द श्रावक ने तो अन्य तीर्थियों का 4 निशेषा चंदना त्याग किया है । ( उ० ) तने से तीथियों का 4 निक्षेषा वंदना आप से हो सिद्ध हो गया । ( पूर्व० ) अरिहंतों की प्रतिमा दूजा पाठ में वंदनीक है, तो फिर तीसरा पाठ किस वास्ते है ? ( उत्तर०) प्रिय ! जैसे बद्रीनाथजी में श्री पार्श्वनाथजी की प्रतिमा, जगन्नाथजी में श्री शांतिनाथजी की प्रतिमा, अन्य तीर्थीलोक अपना देव करके पूजते हैं, जैसे ही जिन प्रतिमा अन्य तीर्थी ग्रहण करते हुये उस प्रतिमा को भगवान के श्रावक नहीं वंदे । प्रिय ! जैसा सूत्र का अर्थ था वैसा मैंने आप को दिया कह है । अब सत्यासत्य का निर्णय करना ग्राप का फर्ज है । 1 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 56 ] (पूर्वपक्ष ) भला साहब ! आज जिस की श्रद्धा मूर्ति पूजने की है । वो सामान्य श्रावक भी मन्दिर बना सकते हैं । आनन्द श्रावक तो धनाड्य था। उनके मन्दिर बनाने का अधिकार किसी सूत्र में है नहों । तो फिर कैसे मान लिया जावें आनन्द श्रावक ने प्रतिमा पूजी। . ( उत्तर पक्ष ) प्रिय ! आनन्द श्रावक का अधिकार उपाशंकंदशासूत्र में है । उस सूत्र के पद 1152000 । जिनकी श्लोक सख्या तो बहुत होती है, उक्त शास्त्र में क्या-क्या बातें थीं। उसकी नुद श्री समवायंग सूत्र में है । सो सुनो पाठसे कितं उवासगदसाओ? उवासगदसासुणंउवासयाणं णगराइं उज्जाणाई चेइयाई वणसंडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मक हाओ। अर्थ-सुगम ! इस में (चे इयाइं) शब्द का अर्थ टीका का टबा का ( चैत्य ) याने जिन मन्दिर का ही है। शायद चैत्य का अर्थ बाग, ज्ञान, साधु करो तो बाग ज्ञान साधु का पाठ अलग है। इसी से (चैत्य) का अर्थ श्रावकों का जिन मन्दिर ही है। शायद कोई तर्क करे कि उपासक दशा में मन्दिर नहीं किया ( समाधान ) उपासक दसा 1152000 पद वाली लावो। हम बता सकते हैं । क्या उपासक दशा का कमग्रन्थ रहेने से समवायांग सूत्र झठा बनाते हैं. प्रिय ! आनन्द श्रावक के जमाने को करीब 2500 वर्ष हुए हैं । परन्तु जिन मन्दिर तो हजारों वर्षों के मौजूद दृष्टिगोचर होते हैं । इतना ही नहीं बल्कि अंग्रेज विद्वानों ने भी कहा है कि जैनों में मूर्ति पूजा सनातन से ही चली आती है । आप को देखना हो तो भावनगर की छपी हुई मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तर देख Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 57 ] लेना | सिद्ध हुआ कि सूत्र में तो प्रमाण आनन्दादि श्रावकों का जिन मन्दिर है और श्रावक जिन प्रतिमा वंदे पूजे । देखो हमारी प्रतिमा शिखर बन्द मंदिर में बिराजे है, इसी में शंका करना ही समकित का भंग है । श्रात्मार्थी सज्जनों को सूत्र का वांचना परिपूर्ण आस्था रखना चाहिये । जब ही समकित की नींव और कार्य श्रानन्द श्रावक की तरे सिद्ध होगा । अस्तु ॥ अंतगडने अणुत्तरोववाई । प्रथम उपांग रो साखजी । अरिहंत चंत्येनगरियां शोभे । श्रोजिन मुख से भाषजी, प्रति १० अर्थ - उक्त दोनों सूत्र में चंपा नगरी के अधिकार में उववाई सूत्र की भोलावण है । जिस में मूल पाठका वर्णन चला है । जिस का खण्डन करने में ( ए० पी० ) को कोई कुयुक्ति न मिली तब कह दिया कि "उववाई में पूर्णभद्र यक्ष का मन्दिर है तथा श्री आत्मारामजी ने लिखा वो पाठ प्रक्षेप हैं । सात प्रतियाँ मेरे पास प्राचीन में यह पाठ नहीं है" इत्यादि बाकी गालियां | पाठको ! लुका मत को हो करीब 440 वर्ष हुए तो इन से प्राचीन की तो आशा हो क्या । मैंने स्थानक वासियों की 20-25 उववाई सूत्र की प्रतियां देखी हैं। जिस प्रति में उक्त पाठ है और जन भण्डारों से तो ताड पत्र पे लिखी हुई प्रति भी देखी जिसमें उक्त पाठ है, तो 'ए. पी.' क्या भोले जीवों को भूल में डालने के लिए धोखाबाजी कर रहा है? जो उक्त पाठ 'पाठांतर' देख के ही चमक गया हो तो उसका मतलब सुन लो ! जैन सिद्धान्त पूर्वधारी आचार्य ने पुस्तकारूढ मथुरा और बलभीपुर इन दो स्थलों में किया था। ये बात जैन जैनांतर में प्रसिद्ध है । जिसमें दोनों आचायों के लिखे हुए पाठ का भावार्थ प्रिय ! यही है । सो पाठ देखो Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल मूल [ यत् आयारवंतखेइया | । [बहुलाअरिहंतचेइया] जणवयसंणिविट्ठ बहुला इतिपाठान्तर । [ 8 ] टीका-श्री अभयदेवसूरिकृत चैत्यानि ___टीका श्रीअभयदेवसूरि कृत- बहुलानि देवतायतनानि इत्यादि यस्यां सा तथा १अरिहंतचेइयजणवयविनोट-स्यात् यक्षादिका मन्दिर कह देवं मणी विहबहुलेतिपाठान्तरंतत्रार्हच्चोत्या. तो यक्षका मन्दिर का पाठ अगाडी | नां जनानां दूतिनाञ्च विविधानि यानि अलग है। पाठकास्तैर्बहलेति विग्रहः सूर्यांगचित्त इय जूपसणिविट्ठबहुला इति च पाठा न्तरं २। टब्बा लूका गच्छ श्री अमतचन्द्र टबार्थ-लू कागच्छ श्रीअमृतचन्द्रसूरि कृत सूरि कृत-छइ जिणनगरीइग्राकारवंत बहुला कहितां घणा जिणी नगरीय परिसुन्दराकार चैत्यप्रासाद देहरा छइ । हंतना चैत्यप्रासाद देहरा घणा छ जिहां ए- | हवो पाठान्तर छ । - - - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 59 ] देखिये ! पूर्वधारी आचार्य ने तो दोनों पाठ प्रमाण किये हैं। उस पर आप के बड़ों ने टब्बा किया है । क्या उन्हीं का वचन उत्थापने को ही आपने अवतार धारण किया है ? प्रिय ! उक्त पाठ को प्रक्षेप कह देवोगे तो पिण दूसरे पाठ से भी मन्दिर तो सिद्ध हो गया। फिर कुयुक्ति कर संसार वृद्धि करना क्या बुद्धिमानों का काम है ! शायद तुम्हारे सरीखे मति के अंधे कह देवें कि यह मन्दिर जक्ष का होगा,प्रिय गणधर भगवान ने जक्ष का मन्दिर अलग फरमाया है। तोसे गं चंपाए णयरिए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए पुणभद्दे णाम चेइए होत्था चिराइए। अब आंख मीच के सोचो, आप की कलइ उड़ने में कुछ कसर रही है ? प्रिय ! इस समय में सूत्र देख के निर्णय करने वाले विद्वानों की संख्या दिन पर दिन बढती जा रही है. इतना ही नहीं बल्कि अंग्रेज लोग भी जान गये हैं। जैसे डाक्टर हरमन जैकोबी को जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरि से समागम जोधपुर में होने से उन्होंने भी निश्चय कर लिया कि जैनियों में मूर्ति पूजा सनातन है । आगे वैष्णव धर्म को मर्ख बना के समाजी तथा कबीर पंथी, दादू पन्थी का नाम लिखा है। पाठको ! ( ए. पी.) मूर्ति विषय में आप के साधर्मी भाइयों का नाम लिखा । जैसे तो हमारे जैन धर्म में भी कितने ही आगम उत्थापी मूर्ति नहीं मानते हैं । जैसे बाइसपंथी, तेरापंथी, अजीवपंथी, गुलाबपंथी, आठकोटी पंथी और भी आज कल इन लोगों को बहुत विशेषण दिया हुआ है। परन्तु मैं अपनी कलम से लिखना नहीं चाहता हूं । मूर्ति पूजा विषय पीछे लिख आये हैं। और भी सुन लीजिये ! Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 60 ] उक्त दोनों सूत्रों में अनेक मुनि शत्रुजय आदि पर्बत (तीथ) पर पधार के सथारा किया है। यह निमित्त कारण आप को भी अवश्य मानना ही पड़गा। (1) अन्तगड सूत्र वर्ग 3 अ० 8 सुलसा गाथा पतणी हिरणं गमेषी देवको प्रतिमा पूजने से देव की हो अाराधना हुई है । वैसे ही जिन प्रतिमा पूजने से जिनेन्द्र देवों की आराधना होती है। (पूर्वरक्ष) अजी ! उन्होंने तो लौविक खाते पूजी है । (उत्तर पक्ष) प्रिय ! लौकिक देव की मूर्ति लौकिक खाते पूज के अपना कार्य कर लिया, तो लोकोत र कार्य सिद्ध क्यों नहीं होवे ? अपितु अवश्य होवे । (2) वर्ग 6 आ 3 सुदर्शन सेठ श्रावक ने प्रतिमा पूजी है । (व्हाया कय बलिकामा) यह गणधरों का वचन है,अस्तु ।।10।। प्रश्न व्याकरण पहिले संवर,पूजा हिसा नामजी। प्रतिमावैयावच्च त्रीजे संवर, करे मुनि गुणधामनी । प्रतिमा. ॥११॥ अर्थ - सूत्र प्रश्न व्याकरण अ० 6 मूल सूत्र (पूया 57) टीका-- (भाक्तो देव पूजा आयतनं गणानामाश्रयः) टब्वार्थ-भावथकी देवने पूजवो ते दया ।। 57 ।। भावार्थ-अहिंसा याने दया के 60 नाम हैं । जिनमें 57 वां नाम देव पूजा है । उक्त सूत्र अ० 8 में साधु प्रतिमा की वैयावच्च करे है । मूल पाठ केरिसए पुणाइ आराहए वमिणं जे से उहि भत्तपाणसंगहणदाणकुसले अच्चंतबाल दुब्बलगिलाण बुड खमगे पव Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 61 ] त्ति आयरिय उचज्झाए सेहे साहम्मिए तवस्सो कुलगणसंघचेइ यीय निज्जरही वेयावच्चै अणिस्सियं दसविहं बहुविहि करेइ अर्थ-शिष्य पूछता है "हे भगवन् ! कैसा साधु तीसरा व्रत आराधे ? गुरु कहते हैं . जा साधु वस्त्र तथा भातपाणी यथोक्तविधि से लेना और यथोक्तविधि से आचार्यादि को देना तिन में कुशल होवे सो साधु तीसरा व्रत अाराधे । अत्यंत बाल ( 1 ) शक्तिहीन ( 2 ) रोगी (3) वृद्ध (4) मास क्षमणादि करने वाला (5) प्रवर्तक (6) आचार्य (7) उपाध्याय ( 8 ) नयादीक्षित शिष्य (9) सार्मिक ( 10 ) तपस्वी ( 11 ) कुल-चान्द्रादिक ( 12 ) गण-कुल का समुदाय - कोटीकादिक ( 13 ) संघ कुलगण का समुदाय चतुर्विध संघ ( 14 ) और चैत्य-जिन प्रतिमा इनको जो अर्थ तिन में निर्जरा का अर्थी साधु कर्मक्षय वांछता हुवा यश मानादिक की अपेक्षा बिना दस प्रकार से तथा बहुविधि से वैयावच्च करै, सो साधु तीसरा व्रत आराधे । इसी में (चेइयठे निज्जरत्यी) इसका अर्थ टीकाकार श्रीअभयसूरि (चैत्यानि जिनप्रतिमाएतासांबोर्थःप्रयोजन स तथा तत्र स निर्जरार्थी कर्मक्षयकामः वैयावृत्त्यं,) इस पर (ए. पी.) ने प्रश्न व्याकरण के पांचवें अध्ययन का पाठ (चेइयाणि वणसडो) उक्त सूत्र अध्ययन 10 का पाठ (भवण तोरण चेइय देवकुल सभा पवाइति) यह दोनों पाठ से (चैत्य) का अर्थ प्रतिमा किया है और तीजा संवरद्वार में [चैत्व] अर्थ ज्ञान किया है। वाचक वर्ग ! स्वय विचार लेवें कि इन लोगों की कितनी न्याय बुद्धि है ? क्या जिनेन्द्र देवों की प्रतिमा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 62 ] की निन्दा करने को ही [चैत्य शब्द का अर्थ प्रतिमा करते हो और प्रतिमा का अधिकार ज्ञान साधु करते हैं तो जैसे चोर कोतवाल को दण्ड दे । वाह कलयुग तेरी लीला ! प्रिय ! लोक कहते हैं कि इन लोगों के पांच ज्ञानावरणीय तीन दर्शन मोहनीय यह पाठ पाटा द्रव्यतो मुह बन्धा है और भाव आंख (चक्षु) पर बन्धा है । परन्तु ( ए. पी.) को इतने से सन्तोष नहीं हुवा तब प्रश्न० अ० 10 का पाठ अनुसार एक पाठ [ चक्षु पर बन्धाने की उद्घोषणा करी है उक्न पाठ में तो घर हाट तोरण दरवाजा आदि बहुत वस्तु देखने की मना है । यदि जब [स्थानकवासी ) खुली अांखों फिरेगे तो उक्त वस्तु दीख पड़ेगी, इसी से एक पट्टी आंख पर बांधने की अवश्य जरूरत है। (प्रश्न ) क्यों जी ! आप उक्त दो पाठ में (चेईय) शब्द का क्या अर्थ करते हो? (उत्तर) प्रिय ! हमारे तो जो पूर्व आचार्य कर गये हैं वही अर्थ है । इन लोगों की तरह नया नया अर्थ नहीं करते हैं । लो सुनो ! उक्त सूत्र में 3 ठिकाने । चेईय ] शब्द है उसका पूर्वाचार्य ने [प्रतिमा) हो अर्थ किया है [1] चैत्य वृक्ष । [1] प्रश्न० प्र० 1 आश्रवद्वार में (चे ईय) प्रतिमा है । परन्तु वह प्रतिमा किसकी है ? कराने वाला कौन है ? जिसका अधिकार सुन ! प्रथम आश्रवद्वार है हिंसा । जिसके भेद 5 हिंसा (1) हिंसा का नाम ( 2 ) हिंसा करने का कारण ( 3 ) हिंसा करने वाला (4) हिंसा का फल (5) प्रथम हिंसा । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 63 ] 1 पावो चंडो रुद्दो खुद्दो साहसिओ अणारिओ निग्धिजो निस्संसो इत्यादि । अर्थ-पापप्रकृतिना बन्धन नोकारण चंड रौद्र क्षुद्रः प्रणविमास्यौ प्रवत्यौमलेच्छादि ना प्रवत्या व्याथी अनार्य पापनी निंदारहित सुग्या रहित इत्यादि । क्या स्थानकवासी सब इसमें आ गये ? 2 हिंसा के तीस नाम पाणवह इत्यादि। [2] पाणवहस्स कलुसस्स कडुयफलदेसगाई तं च पुण. करेंति केइ पावा असंजया अविरया अणिय परिणामदुप्पओगी पाणवहं भयकरं बहविहं बहुप्पगार इत्यादि । प्राण वध आदि तीस नाम हैं। ( 3 ) बह वेतसा पाणा इत्यादि अनार्य का कार्य घरहाट खेती आदि करसाणकर्म सभा तोरण देवकुल पगलीया प्रतिमा स्थूभ आदि बहुत विस्तार है । नोट-क्या श्री रुषभदेव प्रभु के निर्वाण के बाद 3 स्थूभ इंद्र महाराज ने कराई वो भी इसी में मानोगे ? तीसरे अधिकार में जलचर, थलचर, खेचर, उरपुर, भुजपुर, चोरेंद्री जाव एकेंद्री तक जीवों की हिंसा जीवकामस्थ धम्महे काम विषय अर्थ धन्य धर्म । टोका-वेदार्थाश्च वेदार्थमनष्ठाना टबार्थ-वेदार्थी अनुष्ठानयवादिहोमे जीवीतव्यनेऽर्थे तथा आचार, इत्यादि हिंसा करने वालों को मंदबुद्धि कहा है । क्या आपका स्थानक इस में आ गया ? 4 हिंसा करने वाला करकम्मकारी इमे य बहवे मिलक्खु नाइ । के ते सक जत्रण सबर बब्बर गायमुडी दभडग ति Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 64 ] शिय पक्वणिया कुलक्खा गौंड सिंहल पारस कोचअन्ध. दविल बिल्लल पुलिन्द अरोस इत्यादि । ___ अर्थ-क रकर्म का करने वाला घणा म्लेच्छ देश का पन्नवणा सूत्र में अबार्य देशों का नाम कहा है। कहां ते सक्क देगनां यवन देशनां सबर बच्छर कायमरुडा उभडग मित्तिक पक्वणिककुलाक्ष गोडीसिहल पारसक्रौंच अंधडविड बिलकल पुल्लि द्र आरोप इत्यादि। 5 तस्स य पावस्त फलविवागं अयाणमाणा वत्ति महभयं अविस्समावेषणं दोहकाल बहुदुक्खसंकडं नरय तिरिक्ख जोणि इओ आउक्खए चया असुभ कम्म बहुला उवदज्जति नरएसु हुलितं महालएसु इत्यादि । भावार्थ-पाप करने वाले को फल नर्क तिर्यंच का घोर दुःख बताया है । इत्यादि। प्रिय पाठको ! उक्त पांच अधिकार संक्षेप से कहे हैं। विशेष देखना हो तो सूत्र मेरे पास मौजूद है । देख लेवें, प्रिय ! अधिक खेद का विषय तो यह है कि उक्त पांच अधिकार अनायं मिथ्याती के वास्ते हैं। परन्तुः हमारे स्थानकवासी भाई मूर्ति उत्थापने के लिये खुद ही उक्त पाठ से शामिल हो गये हैं। मगर उन लोगों को यह खयाल नहीं है कि श्री. प्राचारांग सूत्र में भगवान ने फरमाया है सम्मत देसी न करंति पावं यह बचन हमेशा स्मरण रक्खो। सम्यकदृष्टी ऐसा पाप कदापि म करें, जो करे तो समकित रहे नहीं । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 65 ) . पूर्वपक्ष-क्या समकिती को पाप नहीं लगे ? देखो !अधर्म द्वार में क्या हुवा? घर, हाट मन्दिर, थानक आदि तो सम्यकदृष्टी पिण करते हैं। उत्तर पक्ष - प्रिय ! जैसा अधर्म द्वार में अनार्य मिथ्याती अशुभ परिणाम माठी लेश्या पाप को सुग्म रहित लोहीवरिया हाथ चोकणा पाप करे है ।वैसा पाप सम्यक् दृष्टी नहीं करे ।देखो भ० स० पु० 9 वर्णनाग नतुवो चेडा राजा आदि संग्राम में पञ्चेन्द्री मनुष्य का वध उन्हीं के हाथ से हुवा था । परन्तु उनको श्रावक क ह्या। न तु मंदबुद्धि या नरकगामी तथा भगवती में मिथ्याती किराणों वंचे तो 5 क्रिया, वोहि ज किराणो सम्यकुदृष्टि बेचे तो 4 क्रिया लगे । प्रिय ! समझने को इतना ही है कि जा रुद्रपरिणामवाली अनंतानुबंधिचोकडी मिथ्याती के है, जिससे वो पाप कर मन में राजी हुये और उक्त चौकडी सम्यक दृष्टि के नहीं है. जिससे लुखा परिणाम से पाप करे तो पण पश्चाताप करे । जिससे सम्यकदृष्टि को अधर्म द्वार नहीं समजना ए सम्बन्ध गहवास का है और जो मिन्दर करणा है रीति केवल धर्म का ही कार्य है। इसी से सम्मत्त दंसी न करंति पा) कहा है। इतने पर भी कोई मत कदाग्रही कहेगा कि नहीं हम तो हिंसा करने वालों को अधर्म द्वार में ही समझेगे । उनसे हम एक ही बोल पूछते हैं - . __1 श्री मल्लिनाथ प्रभु ने अपनी मूर्ति कराई, उस में पृथ्वी काया की हिसा हुई और उसमें एक एक ग्रास हमेशा डालने से असंख्य जीवों की आहुति हुई । ये काम भी 6 राजाओं को धर्म में प्रतिबोधने के वास्ते ही किया था, अब आपके हिसाब से इन परमेश्वर को किस द्वार में गिनोगे? आंख मीच के 10 मिनट विचार Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 66 ) - करो। ऐसे ऐसे अनेक बोल हैं। इस विषय में हमारी बनाइ सि० प्र० मु० देखो ! [ प्रश्न ] अजी महात्माजी ! ऐसा अर्थ न तो पेस्तर मैंने पढ़ा है न मैंने किसी से सुना, मैंने तो यही सुना था कि मूर्ति मन्दिर अधर्म बली द्वार में है । परन्तु आज सूत्र सुनकर मेरा भ्रम दूर हो गया है। अब इस वक्त आचारांग में जो ' जाई मरणमोयणाए ' इन शब्दों का अर्थ सुनना चाहता हूं । सो आप कृपा कर सुनावें । [उत्तर] अहो सत्यचन्द्र ! ऐसा अर्थ आगे नहीं सुनने का कारण यह कि अभी कितने ही लोक माडर प्रवाह है एक गार्डर करें बें तो सब गाडर बें बैं करने लग जाते हैं । परन्तु उसके तात्पर्य समझने वाले तुम्हारे सरी खे बहुत कम हैं, लोग जहां काम पडे तब 'चैइय' पाठ दिखाके कह देते हैं कि देखो भाई 'मन्दिर प्रतिमा' अधर्म द्वार में है । भोले भद्रिक जीव देख के भ्रम में पड़ जाते हैं। परन्तु अब तो कितने ही लोग तुम्हारे जैसी • खोज करने लग गये हैं । तुमने जो आचारांग सूत्र कहा सो ठोक । हमारी बनाई सि० प्रo मु० पुस्तक में विस्तार से लिखा हुआ है । सो देख लेना, और कितने ही लोग मूर्ति के द्वेष से कहते हैं कि जन्म मरण के मिटाने को हिंसा करे तो बोध बीज का नाश होवे । इसमें आचारांग का पाठ ' जाई मरण मोयणाए ' दिखाते हैं। इसमें तुम को जो शंका हो तो इसी का अर्थ पूर्वाचार्यों ने किया वो मैं आपको सुना देता हूँ। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 67 ) मूल सूत्र 'जाई मरण मोयणाए' इस पर श्री भद्रबाहु स्वामी कृत नियुक्ति शीलांकाचार्य कृत टीका है । श्रीजिनहंस सूरि कृत दीपिका-यत जातिमरणमोचनार्थकर्मावदते तत्र जात्यर्थकातिकेयवदनादिकाः क्रियाविधते यःकातिकेयं वंदते सःउत्तमजाति लभते तया यान 2 कामान् ब्राह्मणभ्यो ददाति तांस्तान अन्यजन्मनि लभते इत्यादि कुमार्गोपदेशात् हिसादी प्रवृति विदधाति. तथा मरणार्थ पितृपिंडदानादिषु अथवा ममानेन संबंधोव्यापादितस्तस्यवरनिर्यातनार्थ वधबन्धादीप्रवर्तते,यदि चामरणनिवत्यर्थमात्मानो दुर्गाद्यपयाचितमजादिनाबलि वि. धत्ते तथा मक्त्यर्थं अज्ञानावृतचेतसः पंचाग्नितपोनुष्ठानादिषु प्राण्युपमर्दकारिषु प्रवर्तमानाः कर्माददते, यादव जातिमरणयोर्मोचताय हिंसादिकाः क्रियाः कुर्वते । देखो ! मिथ्याति जिनआज्ञा विपरात मृतपिंड, यज्ञ,होम,पंचअग्नि आदि क्रिया करे। उसे धर्म कहे। उनको बोधबीज नहीं मिले। परन्तु ऐसा नहीं कहा कि मन्दिर स्थानक कराने वाला। बंधव ! 'इतना तो विचार करना चाहिए,जो जैनी भगवान की भक्ति करता "हो उसका बोधबीज का नाश हो जाये तो क्या भगवान को नहीं मानें - गालियां दे, निन्दा करे, वचन उत्थापे उनको समकित प्रावेगा ? अपि तु कभी नहीं। ... प्रिय ! सुगडांग या प्रश्न व्याकरण में नारकी को परमाधामी पूर्व भव में करी मिथ्यात् को क्रिया उद्देश के मार देते हैं परन्तुं ऐसा नहीं कहते कि तू ने पूर्वभव में जिन मन्दिर बनाया Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 68 ) था या जिन प्रतिमा पूजी थी, स्थानक कराया था, यहां कहने को बहुत हैं लेकिन ग्रन्थ बढ जाने से नहीं लिखते । विद्वानों के लिए इशारा भी असरकारी होता है। प्रश्न ] क्यों जी ! ऐसा अर्थ सूत्र में हो तो फिर स्थानकवासी दूसरा अर्थ किस प्राधार से करते हैं ? . [उत्तर प्रिय ! आधार तो टीका का ही है । परन्तु जहां जिन प्रतिमा का अधिकार आवे तहां मनमाने गपोडे लगा देते हैं । जिस में भी सब टोले की एक मति नहीं है। कहो ! आप किस - का अर्थ सच मानोगे? . (प्रश्न ) हमको तो जो आपने लिखा वो पूर्वाचार्यों का ही - अर्थ प्रमाण है । अब आप आगे के तीन पाठों को कृपा करें। [2] उक्त सूत्र अ० 5 मूल पाठ ' चेइयाणि य वणसंडे' टोकार्थ-चेइयाणि त्ति चैत्यवक्षान् आरामावीनां टम्बार्थ-चैत्यवृक्ष मोटा वन । ए. पी.] ने लिखा है कि देवता के चैत्य' परिग्रह में है। लक्ष्मी जानके पूजते हैं । देखो इनकी धूर्तता ! अव्वल तो पाठ लिख दिया और अर्थ नहीं लिखा । इसका कारण सूत्र में तो 'चैत्य' वृक्ष कहा है। इन्हीं लोगों ने जिन प्रतिमा के अभिप्राय से भोले लोगों को बहका दीए कि जिनप्रतिमा परिग्रह में है। मित्र ! प्रथम तो यह समझना चाहिये कि परिग्रह किसको कहते है ? देखो साधु वस्त्र पात्र उपधि रखते हैं सो मोक्ष साधवानिमित्त। परन्तु ममत्व करे तो वोही परिग्रह है । इसका भावार्थ परिग्रह ममता-मूर्छा को कहा है । जैसे Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 69 ) i यत् न सो परिग्गहो वृत्तो नायपुत्तेण ताईणा मुच्छा परिहो वृत्तो । इअ वृत्तं महैसिणा 112111 दश0 611 भावार्थ - परिग्रह ममता - मूर्छा को कहा है। दूसरा लिखा है कि लक्ष्मी जान के देवता पूजते हैं । बन्धव ! देवता के तो विमाण आदि सर्वरत्नों के होते हैं। तब तो उनको भी पूजना तथा नमोत्थुणं देना चाहिये । परन्तु नमोत्थणं तो जिनप्रतिमा सिवाय किसी स्थान पर नहीं दिया है । इसीसे ( ए. पी. ) का लिखना बिल्कुल मिथ्या है । • 3 उक्त सूत्र अ० 8 (चेइयटू ) टीका चरणानि जिन प्रतिमा । टब्बा - जिन प्रतिमा साधु प्रतिमा की वैयावच्च करे याने कोई जिन प्रतिमा की प्राशातना करता होवे तो साधु उस को उपदेशादिक देवे - आशातना टलावे । जैसे व्यवहार सूत्र उ० ॥ 10 ॥ सिद्ध की वैयावच्च करे तोजीव कर्म की निर्जरा करे । अब बतलावो साधु सिद्धों की वैयावच्च किस तरह से करे ? सिद्ध हुवा साधु सिद्धों की प्रतिमा की वैयावच्च करे। देखो ! जैसे आप के गुरु जी के फोटू पर कोई अज्ञानी बालक पेशाब करता हो तो आप उस बालक को उपदेश दे के फोटू बचाओ कि नहीं ? जैसे एक गांव में वैष्णवों के मन्दिर में एक मुखबन्धे साधु की मूर्ति बना कर उसकी आशातना करता था । फिर स्थानकवासी श्रावकों को मालूम पड़ा तो उनके साथ विवाद कर उस साधु की आशातना टलाई अब आप स्वयं विचार लेवें । 4 to 10 साधु (चैत्य) नहीं देखे । वह चक्षु इन्द्री के विषय का वर्णन है । सो घर, हट्ट, तोरण, दरवाजा, नगर, देवकूल, Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 70 ) म प्रतिमा आदि चक्षु इन्द्रिय का विषय पोषणे को नहीं देखे । परन्तु । मन्दिर जाना प्रतिमा वन्दना प्राश्रयी नहीं है । एसा होवे तो फिर गणधर महाराज प्रतिमा नहीं वन्दने से प्रायश्चित क्यों कहे हैं ? स्वयं ही विचार कर लो । प्रिय ! ऊपर जो चैत्य शब्द का अर्थ लिखा है वो मेरी मति से नहीं, परन्तु श्री भगवान के फरमाये मुताबिक पूर्वधारी आचार्यों ने कहा है, वैसा ही मैंने आपको सुना दिया है। - ए. पी. ने अव्वल तो पाठ ही आगे पीछे छोड के निशाचर की पर लिखा है। दूसरा अर्थ भी विपरित कूर्ण पूर्ण की तरह जिनमागम को परस्पर विरोधी बना दिया है । जो चेइग?) का अर्थ ज्ञान के वास्ते वैयावच्च करे । तो उनसे पूछना चाहिये कि नया दीक्षित-गिल्याणि-रोगी और तपस्वीयों से कौनसाशान लेवे । प्रिय विचारने का विषय तो यह है कि इन लोगों को शब्द ज्ञान भी नहीं है । तो श्री तीर्थकर भगवान के आशय को कैसे समझते ! देखो 'चेइय?' "निज्जरदो' इन दोनों शब्दों के अन्त में ठे ठी है। जिसका एक ही अर्थ कर दिया। अब इनको क्या विपोषण देना चाहिये! न ... । · । पूर्व पक्ष-अजी, प्रतिमा क्या आहार पानी करे है ? जो साधु उनकी वैयावच्च करे। . .. उत्तर० प्रिय ! केवल आहार पानी करने वाले की ही वेयावच्च करते हैं, तो साधु संघ गण कुल की वैयावच्च कैसे करे? संघ में श्रावक भी शामिल है । प्रिय ! गीतार्थ गुरु से धारण करे तो कुछ ज्ञानकी प्राप्ति होती है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71) पूर्वपक्ष-आप उक्त पदों का क्या अर्थ करते हैं ? उत्तर० हमारे तो जो पूर्वाचार्य अर्थ कर गये हैं । वो सुनो ! र संघ गण कुल प्रतिमा इनकी कोई निन्दा हीलना आशातना करता हो तो उसको उपदेश आदि से आशातना नहीं करने देनी यह वैयाबच्च है। जैसे हरकेशी मुनि की जक्ष ने वैयावच्च करी इत्यादि बोलों से सिद्ध हुआ कि साधु प्रतिमा की वैयावच्च करें। जैसा सूत्र में बेमा प्रतिमा छत्तीसी मे, इति ।। 110 विपाक में सुबाहप्रमख । आणंद सरीखा जोयजी।। उधवाई अरिहंत चेइयाणि, अंबड प्रतिमा वंदी सोयजी,प्रतिमा।121 अर्थ -- श्री विपाकसूत्र में सुबाह आदि श्रावकों का अधिकार है । सो आनन्द श्रावक आदि जिन प्रतिमा वांदी पूजी सो गाथा आठवीं के अर्थ में लिख पाये हैं और उववाई सूत्र में चंपानमरी में जिन मन्दिर कहा है । सो सूत्र पाठ -.. (यत बहला अरिहंत चेइया) टीकार्थ और ट बार्थ को गाथा 10 के अर्थ में लिख आये हैं. अब अंबड श्रावक का अंधिकार सुनो। सूत्र पाठ - अंबडस्सणो कप्पइ अन्नउत्थिया वा अणउस्थियदेवयाणि वा अण्णउत्थियपरिग्गहियाणिवाचेइयाइंवंदित्तए वाणमंसित्तएवा जावपज्जुबासित्तएवाणण्णस्थ अरिहंते वा अरिहत्त चेइयाणि वा टीकार्थ- गाथा 9 मी में आनन्द अलावे का कर आये हैं । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (72) यहां (अरिहन्तचेइयाणिवा) टीकाकार ने अर्हच्चैत्या नि जिन प्रतिमा इत्यर्थ ऐसा अर्थ किया है। ___टब्बार्थ- अबड नाम संन्यासी नइ न कल्पै जैन ना श्रमण साधु थी बाह्य, शाक्यादिक अन्य दर्शनी शाक्यादिक अन्यतीर्थीना देवता हरिहरविरंचिप्रमुख अन्य तीर्थी शाक्यादिकई परिग्रह्या आपणा करिने थाप्या लेखव्या अरिहंतना चैत्य वीतराग प्रतिमा वांदिवा-हाथ जोडीन इ स्तुति करीबो, नमस्कार-पंचांग प्रणाम करीवओं, जावशब्दथकी सत्कारादिकना बोल पर्युपासना मन वचन कायाइ सेवा ना करीवो, अनेरु न कल्यै । तो स्युकल्पै ? अरिहंत साक्षात् वीतराग अनन्त ज्ञानी ते अरिहंतना चैत्य जिन प्रतिमा जिननी थापना ने वांदिवा नमस्कारादि करीवो कल्पै । प्रिय ! सूत्रार्थ में खुलासा जिन प्रतिमा वंदनी गणधर भगवानने फरमादिया है । तद्यपिः ए. पी.' लिखता है कि मैं अपूर्व चूर्ण तेरे वास्ते लाया हुं इत्यादि । पाठको ! गणधरों का चूर्ण तो मैं ऊपर लिख आया हूं । वे जैन जैनेतर में प्रसिद्ध है। परन्तु 'ए. पी. ने अपूर्व चूर्ण किस टट्टपुजीये की दुकान से क्या भाव खरीद किया है ? विचारने का विषय तो यहां गणधर का चूर्ण छोड के टट्टपुन्जीये का चूर्ण कौन विद्वान लेगा? शायद ए. पी. आप के गुरु और पांच पच्चीस भोली औरतें ले लेवें तो ताज्जुब नहीं। . - आगे 'अरिहन्तइयाणि वा' का अर्थ साधु किया है। उस पर जैन० दि० श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम लेके भद्रिक जीवों को जाल में फंसाने का प्रयत्न किया है और गालियां दी Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 73 ) हैं । प्रियवर ! जैन श्वेताम्बर दिगम्बर विसी आचार्य ने अंबड अलावे ' अरिहन्तइयाणि वा' का अर्थ साधु किया हो तो हम को प्रमाण है । परन्तु किसी आचार्य ने ऐसा अर्थ नहीं किया है। जो ए. पी. उक्त आचार्य महाराज का ग्रन्थ सच मानना कबूल करता हो तो हम श्री कुन्दकुन्दाचार्य के बनाये बहुत ग्रन्थों में श्री जिन प्रतिमा साधु श्रावक को वन्दनी पजनी दिखला देवें। वर्तमान में भी दिगम्बर जैनी जिन प्रतिमा को मानते हैं । कहो अब तेरा चूर्ण किस हवा में उड गया ? और भी भ्रम रहा हो तो सुनो भग० स० 3 उ० 1 चमरेन्द्र अधिकार [णण्णत्थ अरहते वा अरहंतचेइयाणि वा अणगारे वाभावियप्पाणो] इसमें साधुका तीसरा पाठ अलग है। . प्रिय ए. पी.' ! तू किस लाल लपेटा में आ गया?ले सुन ! सूत्र में साधु के 13 नाम कहे हैं। श्री सुगडायंग सूत्र अ० 13- - . 1 समणेति वा 2 माहणेति वा 3 खंतेति वा 4 दन्तेति वा 5 गरोति वा 6 पूतेति वा 7 इसिति वा 8 मुणोति वा १ कित्तीति वा 10 विदुति वा 11 भिक्खुति वा 12 लू हेतिवा १३ तीरीतिवा इति । देखो गणधर महाराजने साधु के तेरह नाम कहे हैं । परंतु चौदमा (अरिहंतोइयाणि वा) नहीं कहा। अब भी कुछ भ्रम रहा है ? [पूर्व पक्ष ] अरिहन्त और प्रतिमा वन्दनीक है, तब तो साधु अवन्दनीक ठहरेगा। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 74 ) १५. ( उत्तर०) जो तुम साधु अर्थ करोगे तो आचार्य उपाध्याय साधवी भी अवन्दनीक ठहरेगा। • प्रिय ! जैन सिद्धान्तों के रहस्य को समझो। जैसे एक सेठ के - नाम का नौता आवे उसी में सेठ का बेटा पोता आदि सब जीमने को जा सकते हैं । ऐसे ही अरिहंत के नाम में आचार्य उ० साधु 2 आ गया। (संग्रहनयमत से) सिद्ध हुआ दूसरै पाठ में प्रतिमा अंबड श्रावक ने वांदी है। ...पाठको ! अन्य सूत्र में नगरी बाग भगवान का समोसरण तथा पुरुष वांदवा जाने के अधिकार में उववाई की भोलामण दी जाती है । कारण (उववाई) में विस्तार से वर्णन किया है। जिसमें भगवान का समोसरण संक्षेप से लिखता हूं। चित्र में देखो। ... प्रिय ! भगवान के समोसरण तीन दिशा में बिंब 'प्रतिमा' स्थापना है । जिसको चतुर्विध संघ वन्दे पूजते हैं और समोसरण में फूल ढींचण ‘गोडा' परिमाण होते हैं । अब प्रतिमा वन्दना पूजने में क्या अकल बन्दों को कुछ भी शंका रहती है अपितु कभी नहीं। :: (प्रश्न ) फूल सचित्त है । भगवान की 'द्रव्य पूजा करता होवे तो 5 अभिगम में सचित्त वस्तु बारे मेली किम जावे ? ........ ( उत्तर ) प्रिय ! बाहिर रखे वो आपके उपयोग की वस्तु । जैसे पहनने को फूल माला, खाने का पाम आदि । परन्तु पूजा की सामग्री नहीं समझना । देखो इसी उपवाई सूत्र में चन्दना के अधिकार में गणधर महाराज ने खुलासा मूल पाठ में फरमा दिया है । सो सुनो ! मूल पाठ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 75 ) बहवे राइसर तलवर माईविय कोबिय इन्भ सेट सेनावह सत्यवाह पभितिआ अप्पेगड्या बंदणवत्तियं अप्पेगइया पूअणवत्तिय एव सक्कारवत्तियं सम्माणवत्तियं इत्यादि। अर्थ-अनेराइ बहवे घणा राजा मंडलिक ईसर युवराजा तलवर मउडबंदराजा माडंबिय मडंबना अधिपति कोडुबिय कुटुबना नायक गजांतलक्ष्मी जेहने नगर सेठ बड़ा सना चतुरंग सेना कटकना नायक सार्थवाह सायतांडासी सोमितना चलावणहार प्रभृतिए आदि देइनइ एकेक पूर्वई कह्या ते वांदिवा स्तुति करवा तिणेइ ज निमित्त आवे, एकेक पूजा जिम पुष्पादिक पूजिये तिम पूजाने इज निमित्त आवे, इम सत्कार वस्त्रादिक जिम सत्कारने ज निमित्त आवे, सन्मान उठी उभां थाइवो बहुमान देवो तिणो निमित्त आवे। । लो और सुनो अणुयोगद्वार सूत्र मूल पाठ (तिलुक्कमाहित पूइयेहिं ) अर्थ-त्रिलोक्य त्रिभुवनपति ब्यंतर नर विद्याधर वैमानिकादिक समुदाय रूप तेणे महित कहतां आनन्दाश्रुवहति दृष्टि से सहर्षपणे निरख्या छे जे भगवन्त तेणे तथा महिता केवल गुणो'स्कीर्तनरूप जे भावस्तव तेणे तथा पूजित कहतां चन्दम पुष्पादिक द्रव्यपूजा करो पूज्या छे जे भगवन्त । अब समोसरण का फूलों का समवायंग सूत्र में है। सो सुनो मूल पाठ - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 76 ) जलथलयभासुरपभूतेणं विट्ठावियवसद्धवन्नेणं कुसुमेणं जाणुस्सहप्पमाणमित्ते पुष्फोवयारे किज्जइ ॥ 1 ॥ ___अर्थ-स्थल कुसुम ते चम्पाजाई प्रमुख जल कुसुम ते कमला. दिक भास्वर तेजवन्त प्रभूतघणा नोचा छे बीट जेहना एतले उर्द्धमुखे पांचवर्ण फुल्ले करी ढीचण प्रमाण फूलनी पूज फूल पगर करे इत्यादि। .. प्रिय ! अब आंख मीच के सोचो, मूर्ति पूजा के प्रमाण में कुछ कसर रही है ? देखो ! आप के तेरापंथी ने एक दया उत्थापण के वास्ते कितनी कुयुक्तियाँ तैय्यार करी हैं ? वैसे ही आपको भी एक जिन प्रतिमा न मानने से श्री तीर्थकर गणधर और पूर्व आचार्यों के वचनों की पाशातना करनी पड़ी। तो पिण अन्त का तन्त में तो झूठ सो झूठ ही रहेगा। स्मरण रहे! आखिर तो मूर्ति पूजा बगैर मोक्ष नहीं है । कारण आपकी श्रद्धा से आपकी गति देवलोक को होगी वहां तो मूर्ति पूजना ही पड़ेगा ! कहो फेर आपको यह संसार वृद्धि को कुयुक्ति करने में क्या फायदा हुवा ? बन्धवो ! इस प्रवृत्ति को छोड के श्री वीतराग देवों के वचन पर आस्ता रख के ऊपर लिखी मूर्ति पूजा की सम्यक् प्रकार श्रद्धा रक्खो। जिससे आपका जल्दी कल्याण हो । इति ।। 12 ।। रायपसेणीसुरियाभे पूजी । जीवाभिगमविजयसुरङ्गजी । धवं दाउणं जिणवराणं ठणेस च्चेचौथेउपाञ्जीप्रतिमा. 13 अर्थ--राय पसेणी सूत्र में सुरियाभ देवता ने जिन प्रतिमा की 17 प्रकार से पूजा करी है । यह बात जैनियों में प्रसिद्ध है । तत्र मूल सूत्र पाठ - Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 77 ) एवं खलु देवाणुप्पियाणं सुरियाभे विमाणे सिद्धाययणे असयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेह पमाण मेत्ताणं संण्णिखित्तं चिट्ठति । सभाए णं सुहम्माए माणवए चेइए खंभे वइरामए गोलवट्ट समुग्गए बहुओ जिणसकहाओ संणिखित्ताओ चिट्ठति ताओणं देवाणुप्पियाणं अण्णेस च बहुणं वेमाणियाणं देवाय देवीण य अच्च णिज्जाओ जाव वंद णिज्जाओणमसणिज्जाओ सक्का रिज्जाओ सम्माणणिज्जाओकल्लाणं मङ्गलं देव यं चोइथं पज्जुवासणिज्जाओ तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुण्यं करणिज्जं एयं णं देवाणुप्पियाणं पच्छाकर णिज्जं तं एवं णं देवाणुप्पियाणं पुवि पच्छावि हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए आणुगामित्ताए भविस्सइ || भावार्थ - सुरियाभ देवता ने उत्पन्न होते ही विचारा कि मुझे पहिला पीछे कौनसा कार्य हित का, सुख का, कल्याण का, मोक्ष का करना है या भव 2 में साथ चलने वाला है ? तब उक्त देवता के सामानिकदेव तथा पर्षदा के देव हाथ जोड़ के कहता हुवा " स्वामी इस विमान में सिद्धायतन में 108 जिन प्रतिमा जिनेन्द्र देवों का शरीर प्रमाण याने | जघन्य 7 हाथ उत्कृष्टी 500 धनुष्य की अवगाहना ] तथा सुधर्म सभा में जिनेश्वर भगवान की डाढा है । वो आप को या अन्य कितने ही देवताओं को वदना पूजना यावत् सेवा करने योग्य है । यही पहला पीछे हितकारी, यावत् सुखकारी, कल्याणकारी, मोक्षकारी यहाँ करनी भव 2 में साथ चलने वाली है । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 78 ) . . इसी तरह जीवाभिगम सूत्र में विजय देवता ने पूजा करी हैं। जिसका फल यावत् मोक्ष गणधर भगवान ने फरमाया है। कितनेक ( ए. पी. ) सरीखा भोला भाई 'जिन प्रतिमा जिन सरीखी' कहने में हिचकते हैं । परन्तु श्री गणधर भगवान (धुवं दाउणं जिणवराणं ) यह खुलासा फरमाया है कि धूप दिया-जिनराज को । तो तुम लोग गणधरों की माफिक कहते क्यों शरमाते हो ? " या गणधर भगवान का वचन सच्च नहीं मानते हो ? प्रिय ! जैसे भैरव की मूर्ति को भैरव कहते है । लकड़ी के घोड़े को, घोड़ा कहते हैं तो भगवान की मूर्ति को भगवान कहने में कम हरजा है ? देखो! अंतगडसूत्र में द्वारकानगरो को पाठ.पच्चक्खंदेवलोगभूयाए' ) कहा है तथा भगवती आदि में (इंदमहेतिक) आदि कहा है । इसी से सिद्ध हुमा कि जिन प्रतिमा जिन सरीखी कहना सूत्र प्रमाण से है। आगे चोथा उपांग पन्नवणाजी जिसके पद 11 वे में (ठवणे सच्चे) कहा है तथा चम्पा आदि नगरी में अरिहतों का मन्दिर है । सो पीछे लिख आये हैं । देख लेना। . ..: प्रिय ! सूर्याभ देवता के अधिकार में (प्रश्न ) [ उत्तर ] बहुत से हैं । वो हमारी बनाई सिद्ध प्र० मु० में अच्छी तरह समाधान किया हैं । यहां नहीं लिखने का कारण यह है कि ( ए. पी: ] लश्कर वाले ने प्रतिमा छत्तीसी का वृथा खण्डन करने को कं० - 1 देवलोक कह द्वारका कह । 2 इंद्र प्रतिमा का मोछव को इंन्द्र मोछव कहा है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 79 ) प्रकाशपत्र तारीख 3 दिसम्बर 15 अंक 10-11-12-13-15 में लिखा था । उस लेख को समीक्षा हमने इस पुस्तक में लिख दिया है। पाठकों ने भी भली भांति पढ़ लिया होगा । आगे का लेख हमको नहीं मिला। जिस से जो प्रतिमाछत्तीसो में कहे हुवे सूत्र पाठसे सिद्धकर बतलायेंगे । शायद 'ए. पी.' मायावृत्ति से लेख बन्ध कर पुस्तक रूपे छपावेंगे तो पाठकों को हम सूचना करते हैं कि उनकी समक्षा से हमारी सिद्ध प्रतिमा मु० देख लेनी चाहिये और हमारे को जो उनको पुस्तक मिलेगी तो हम दूसरी आवृत्ति में श्रागम अनुसार उत्तर दे के इस पुस्तक में और बढ़ा देवेंगे । प्रिय पाठको ! इतना तो स्मरण में रखना कि श्रीत्रिलोकीनाथ ने ठाम 2 स्थापना मूर्ति 'जिनप्रतिमा' कही है। तो क्या 32 सूत्रों से कोई निषेध कर सकेगा ? हर किसी विद्वान् स्थानकवासी से पूछ लो तो अवश्य कहेगा कि सूत्र में जिन प्रतिमा चली है । तो फिर 'ए पी.' 32 सूत्र में जिन प्रतिमा का खण्डन किस से करेगा ? क्या उनकी स्वकपोल कल्पित बातें कोई विद्वान मानेगा ? अपितु कभी नहीं। जो स्वयं वीर पुत्र है सो तो वीर वचनों पर ही दृढ विश्वास रखेगा। उन्हीं का कार्य सिद्ध होगा | 13 || 1 3 प्रथम तीर्थंकर मोक्षसिधाया । धूभ कराया तोन जी ॥ • जंबूद्वीपपन्नत्ति देखो। सुर होय भक्ति में लीन जी। प्रतिमा. 14 जंभकदेवता प्रतिमापूजी । शाश्वतासिद्धायतन बहुजाणजो । चंदपन्नति सूर्यपन्नति । प्रतिमा कही विमानजी । प्रतिमा. 1151 अर्थ- सूत्र जंबुद्वीपपन्नति भगवान ऋषभदेव मोक्ष पधारे Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.80 ) तब शक्रेन्द्र के आदेश से देवों ने तीन चैत्य थूभ कराई है। सूत्र पाठ. - यत् खिप्पामेवभो देवाणुप्पिया सम्वरयणामए महइमहालए तओचेइयथुभेकरेह । एगं भगवओ तित्थगरस्स चिइगाए एगं गणहरचिइगाए एगं अवसेसा अणगाराणं चिइगाए टीकार्थ-सर्वस्पष्टं । नवरं सर्वात्मनारत्नमयान अन्तर्बहिरपिरत्नखचितान महातिमहतोऽति विस्तीर्णानआलप्रत्ययः स्वार्थिकःप्राकृतप्रभवः,त्रीन, चैत्यस्तूपान् चैत्याश्चित्तालाद• काः स्तूपाश्चत्य स्वरूपास्तान कुरुत चितात्रयक्षितिष्वित्यर्थ आज्ञा करण सूत्रे। टब्बार्थ-इन्द्र कहे उतावलो अहो देवानुप्रिय ! सर्व रत्नमय मोटा अत्यंत विस्तीर्ण एहवा त्रीणिस्थूभकरो। एक भगवंत तीर्थकरनी चयने विषय, एक गणधर नी चयने विषय, एक अवशेषकता साधु नी चयने विषय, तिवारइं ते घणा देवता जाव स्थूभ करे । (प्रश्न ) यह तो देवता का. जीत आचार है । परन्तु धर्म नहीं । सूत्र में धर्म कहा होवे तो मूल सूत्र पाठ बतलाना चाहिए। (उत्तर) प्रिय ! अव्वल तो यह समझो. जोत आचार किस को कहते हैं ? सो सुनो। जोत (याने) अवश्यमेव करने का काम । जैसे श्रावक समायक प्रतिक्रमण करे सो जोत प्राचार है और तुम कहते हो कि मूल पाठ बतलाना था, सो लो सुनो...: केई जिणभत्तीए केई जीअमेअंतिकट्ट केई धम्मोत्ति कट्ट गेण्हंति । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 81 ) टीकार्थ-केचिज्जिनभक्तया जिने निर्वते जिनसकथि जिनवदाराध्यमिति केचिज्जीतमिति पुरातनैरिदमाचीर्णमित्यस्माभिरपीद कर्तव्यमिति केचिद्धर्मः पुण्यमिति कृत्वा । टब्बार्थ-- केतलाइक तीर्थंकरनी भक्तिजाणी ने. केतलाइक जीत-आपणो अाचार छ एहवा कहीने, केतलाइक धर्म जाणी ने । यह उक्त सूत्र में जो जमग देवता का वर्णन सूत्र में से विस्तार कहा है। जिनडाडों, जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा की 17 प्रकार पूजा सूर्याभदेवता की तरे समझ लेना । मूल पाठ : यत-तासिगं उत्तरपुरथिमेण सिद्धाययणा एस चोव जिणघराणवि गमोति,सव्वरयणामयाजिणपडिमा वण्णओ जाव धूवकडुच्छगा। इसकी टीका और टब्बे में बहुत विस्तार है और उक्त सूत्र में पर्वतों के ऊपर बहुतसा शाश्वता सिद्धायतन कहा है। । आगे चन्दपन्नति सूर्यपन्नत्ति सूत्र में चद्र सूर्य की राजधानी विमान । का वर्णन है । जिसमें जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा. जिन डाडों का बहुत अधिकार है। देखनाहो तो सूत्र मौजूद है । प्रिय ! जहां देवता प्रतिमा पूजा का अधिकार है, वहां सूर्याभदेवकी भोलामण से सब 1 ठिकाणे सूर्याभ देवता की तरे समझ लेना इति ।। 15 ।। निरयावलिका पुल्फिया माहे। चंपानगरी जाणजी । उववाई में वर्णन कीनो, अरिहंत चैत्य प्रमाण जो । प्रति० ॥१६॥ तीजे वर्गदशोइदेवता, पूजा नाटक विध जाणजी। चौथे Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 82 ] वर्ग दसोईदेवीयां । प्रतिमापूजी बहुमानजी । प्रतिमा० १७॥ पांचवेंवर्गे द्वारकानगरी । बारे श्रावक की जोडजी । चपानी परे नगरी शोभे। श्रीदक पूजी होडाहोडजी प्रतिमा १८। अर्थ- निरयावलि का सूत्र के पंच वर्ग हैं । जिसमें चंपा राजगही शब्द से बनारखी द्वारका आदि नगरियों में चंपा की भोलावण है । सो उववाई में (बहुला बरिहत चेइया) पाठ से नगरियों में मन्दिर पीछे लिख आये हैं और चन्द्रमा सूर्य शुक्र बहुपुत्तिया सिरी हिरी धति कृती आदि देव देवियों ने सूर्याभ की तरे 17 प्रकार को जिन प्रतिमा की पूजा करी है। __ और निसढादी 12 आनन्द श्रावक की तरे प्रतिमा पूजी है । पाठ[ण्हाया कयबलीकम्मा] इसीसे यहाँ ज्यादा विस्तार नहीं किया है। दसमे अध्ययने गौतम स्वामी, तीर्थ अष्टापद जायजी। उत्तराध्ययन अट्ठारमे देखो, कह्यो उदाइरायजी ।प्र.१६। अर्थ-उत्तराध्ययन सूत्र दशमा प्र० दुमपत्तए पंडयए जहा निवडइ रायगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम मा पमायए ॥ १॥ इस गाथा में 14. पूर्वका धणी सदा अप्रमत्त संजमधारी गौतम स्वामी को श्री वीर प्रभुने उपदेश किया है। (समयं गोयम ! मा पमायए । इस उपदेश का प्राशय अति गंभीर है । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 83 ] 1 परन्तु आधुनिक समय में उस गंभीर आशय को बिना समझे प्रनेक विकल्प उठते हैं । उन महाशयको चाहिये कि पूर्व आचार्यों के उस गभीर आशय के अनुसार किये हुवे अर्थ पर ही दृढ़ विश्वास रक्खें । प्रिय ! पूर्वाचार्य नवें दसवें अध्ययन के सम्बन्ध में उक्त गाथा का अर्थ वृत्तिकार ने विस्तार से किया है । उनको सम्पूर्ण लिखे तो ग्रंथ बढ जावे | इसोसे इस सम्बन्ध पर मुद्दे की बात लिख देता हूँ । पृष्ठचम्पानगरी में साल राजा, महासाल जुवराजा, राजा की बेन यशोमती, बेनोई पिट्ठर, भानजा गांगेल है। श्री वीर प्रभु की देशना सुन साल महासाल गागलि भांनजे को राज देके दीक्षा ग्रहण करी थो| 11 अंग पढ कर राजगृही नगरी आया । भगवान से अरज करी गौतम स्वामी कैसे थे, पीछे चम्पा पधारे । भगिनी 1 बेहनोई 2 भानजा 3 इन तीनों को दीक्षा दी ! पीछे राजगृही आते समय साल महासाल पिट्ठर यशोदा गांगेलि ए 5 जन को आत्म भावना भावतों को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ । भगवान के पास आकर पाँचों प्रदक्षिणा देके केवली पर्षदा में बैठे । गौतमस्वामी वारे तो भगवान ने फरमाया गौतम ! केवली की श्राशातना हुई। तब गौतम स्वामी के वली को खमावी मन में चितवे कि मेरे प्रतिबोधितों को केवल ज्ञान हो जाता है, परन्तु मुझे क्यों नहीं होता ? उस समय देव ध्वनि हुई कि माज भगवान वीर प्रभु ने व्याख्यान में फरमाया है ( यत-अद्य भगवता व्याख्यावसरे एवमादिष्टं यो मुनिचरः स्वलब्ध्या अष्टापदाद्रौ चेत्यानि वन्दते स तेनैव भवे सिध्यतीति श्रुत्वा गौतमः स्वामिनं पृच्छति भगवन् ! अहमष्टापदे चैत्यानि वन्दितुं यामीति । भगवता उक्त व्रजाष्टापदे Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 84 ] I चैत्यानि वन्दस्व । ततो हृष्टो गौतमो भगवच्चरणौ वन्दित्वा तत्रागतः । पूर्वं हि तत्राष्टापत्रे ताह जनसंवादं श्रुत्वा पञ्चपंचशतपरिवारा, कोडिन्न १ दिन २ सेवाला ३ ख्यास्ताप सा आगताः सन्ति । तेष कोडिन्नस्तापसः सपरिवार एकान्तरो पवासेन भुक्तिकरणे मूलकन्दान्याहारयति, सोष्टापदे प्रथममेखलामा दोस्ति । द्वितीयों दिन्नतापसः सपरिवारः प्रत्यह षष्ठषष्ठपारण के परिशटितानि पर्णानि भुंक्त े, सः द्वितीयां मेखलामारूढास्ति । तृतीयः सेदालतापसः सपरिवारो निरन्तरमष्टमपारण के सेवालं भुंक्त स तृतीयां मेखलामारूढोस्ति एवं तेषु गौतमः सूर्यकिरणावलम्बेन तत्रारोढुमारब्धः ते तापसाश्चिन्तयन्ति, एषः स्थूलवपुः कथामत्राधिरोढुंशक्य ते वयं तपस्विनोपि अशक्ता एवं चिन्तयत्स्वेवैतेषु पश्यत्सु स गौतमः क्षणादष्टापदपर्वत शिखर मधिरुढः । ते पुनरेवं चिन्तयन्ति यदासाववतरिष्यति तदास्य शिष्या वयं भविष्यामः । गौतमस्वामी प्रासादमध्ये प्राप्तो निज निजवर्ण परिमाणोपताश्चतुविशति जिनेन्द्राणां भरतकारिताः प्रतिमा ववन्दे । तासां चंवं स्तुतिं चकार । जगचिन्तामणि! जगनाह ! जगगुरु ! जगरक्खण' इत्यादि स्तुति कृत्वा .. ) भावार्थ - भूचर अपनी लब्धि से अष्टापद पर भरत कराया चंत्य (प्रतिमा) वन्दे तो उसी भवमें मोक्ष में जावे, ये बात सुनकर गौतम स्वामी ने भगवान से अरज करी " अष्टापद चेत्य Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 85 (प्रतिमा) वंदु ?'' तब भगवान रजा दिवि ! पाठ-(समयं गोयम मा पमायए ) गौतम समयमात्र भी प्रमाद मत करो। भगवान की आज्ञा से गौतम स्वामी अष्टापद तीर्थ ऊपर पधारे व भरतचक्रवर्ती के भराए वे 24 तीर्थंकरों के वर्ण शरीर प्रमाण की जिनप्रतिमा को वन्दी । जगचितामणि आदि चैत्यवदन किया। पीछे पधारे तो 1503 तापसों को प्रतिबोध दिया इत्यादि बहुत विस्तार है। इसका अर्थ तो स्थानकवासी भी प्रतिमा ही करते हैं । ( प्रश्न । भरतचक्री को असंख्याकाल हुवा और भगवती . श० 8 उ० 9 में कृत्रिम वस्तु की संख्याता कालकी स्थिति कही है । तो भरत भराया (बिंब) कैसे सिद्ध होवे ? ( उत्तर ) प्रिय ! भगवती में स्थिति कही सो स्वाभाविक वस्तु की है और ( प्रतिमा) रही सो देव सहायता से रही है। जैसे जम्बूद्वोप पन्नत्ति सूत्र मूलपाठ में पहिले आरे का वर्णन वापी पोषरणी आदि कही है । तो विचारो ! शाश्वती तो सूत्र में चनी नहीं । 9 कोडा कोड सागर तक कम भूमि मनुष्य था नहीं तो बतलावो ! वो वापी आदि किसने कराइ ? जैसे वापी आदि :: देवताओं की सहायता से रही। वैसे हा. भरत भराया बिब . ( प्रति मा) रही । यह बात निःशंक है। . आचारांग सूत्र में तीर्थ यात्रा कही है और जंघाचारण : विद्याचारण मुनि ने तीर्थ यात्रा करी है । अब भी गौतमस्वामी के परंपरा वाले मुनि तीर्थयात्रा कर रहे हैं । जैसा सूत्र में था वैसा प्रतिमा छत्तोसी में लिखा । आगे इसी सूत्र का अ० 18 में उदाइ राजा हुवा सो ध्यान दे के सुनो ।।191 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 86 ] प्रभावती राणी नाटक कियो, जिन भक्ति में रागजी । गणतीस अध्ययने चैत्यवंदनको फल भाग्यो वीतरागजी प्र.२०॥ अर्थ-उत्त० अ० 181 सोवीर रायवसभो, चेच्चा रज्जं मणि चरे। उदायणो पम्वइओ, पत्तो गइमणुत्तरं ॥४८॥ प्रिय ! उदाइ राजा का विस्तार से वर्णन सूत्र में है । तथापि मैं प्रभावती राणी ने जिन प्रतिमा आगे भक्ति में लीन होके नाटक किया है वो लिखता । ज्यादा देखना हो तो सूत्र मेरे पास मौजूद है। देख लो यत-तत्रोदायनराज पट्टराज्ञो चेटकराजा पुत्री प्रभावती नामनी श्रमणोपासिका तत्रायाता, सा तस्या मंजषायाः पूजां कृत्वा एवं भणति गयराग दोसमोहो, सम्वन्न अडपडिहेर संजुत्तो, देवाधिदेव गरुमो अइरा मे दंसणं देउ १ एवं उक्त्वा तया मंजूषाया हस्तेन परशुप्रहारो दत्तः उद्घाटिता सा मंजूषा, तस्यां दृष्टा चातीव सुन्दराम्लानपुष्पमालालकृता श्रीवर्द्धमानस्वामि प्रतिमा,जाता जिनशासन्नोनतिः अतीवानंदिता प्रभावती एवं बमाण सम्वन्न सच्चदंसणो अपुणभवो भवियजणमणाणंद जय चिन्तामणि जय गुरु जय २ जिणवीर अकलङ्कि १ तत्र प्रभावत्या अन्तः पुरमध्ये चैत्यगृहं कारित तत्रीय प्रतिमा स्थापिता तां च Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 87 ] = त्रिकालं सा पवित्रा पूजयति । अन्यद प्रभावती राज्ञो तत्प्रतिमायाः पुरो नृत्यति, राजा च वीणां वादयति । भाव थं विद्यन्माली देवता ने चलहेमवन्त पर्वत से गौशीर्षचन्दन लाय के श्रीवीर प्रभु को प्रतिमा बनाई एक मजसे में रखके वीतभयपाटण भेजी। बहुत अन्यमति लोक अपना देवकुं - उदेशी मंजूषा को खोले पिण खले नहीं । तदा उदाइ राजा की राणी चेडा राजा की पुत्री महासती प्रभावती राणी ने देवाधिदेव को उदृशी के मजसे को खोली। श्रीवीर प्रभुको प्रतिमा ले अपने अन्तेपुर ( घर ) के मंदिर में स्थापना करी । त्रिकाल अष्ट प्रकार की पूजा करती थी । एक समय प्रभावती रानी जिन भक्ति में अति उत्साहित होके जिन प्रतिमा के आगे नाटक करती हुई । राजा उदाइ बीणा बजा रहे थे इत्यादि । इस विषय में प्रिय ! भद्रबाहु स्वामी 4 पूर्वधारी ने आवश्यक सूत्र नियुक्ति में कहा है - यत् (अंतेउ रचेइयहर कारियं प्रभावती व्हाता तिसंज् अच्चे अक्षया देवी बच्चई राया वोणं वायेइ ) भावार्थ प्रभावती रानी ने अपने महल के अन्दर जिन मंदिर बनवाया प्रभावती रानी स्नान करके त्रिकाल जिन प्रतिमा का पूजन करती है । एक समय रानी नृत्य पूजा कर रही है और राजा वीमा को बजा रहा है । * उस प्रतिमा की प्रतिष्ठा कपिल केवली ने कीनी है । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 88 ] प्रिय ! प्रभावती राणी का अधिकार इसी मुजब स्थानक - वासीयों की प्राचीन शास्त्र की प्रतों में है । उनमें से करीब 20-25 प्रत मेरे पास मौजूद हैं। यदि कुछ शका हो तो देख लो । और इसी अध्ययन गाथा 35 में सगर चक्की के 60000 पुत्रों ने अष्टापद तीर्थ की रक्षा के वास्ते खाइ खोदी इत्यादि सम्बन्ध है । उसका भी ( स्थान०) व्याख्यान में वाचते हैं। फिर न जाने ये लोग प्रतिमा किस वास्ते नहीं मानते हैं ? आगे अ० 29 मा बोल 73 में से 15 वां चैत्यवंदना का फल - यत् -- टीकार्थ- प्रत्याख्यानानंतर चेत्यवन्दना कार्या । अथएतत्फल प्रश्न पूर्वमाह ( वयथुइ मंगलंग भते ! जीवे कि जणयेइ ? थथथुइ मंगलेण नाणदसण चरित-तत्तबोहिलाभ जणयइ, नाणदंसण चरितबोहि लाभ संपन्न य जीवे अन्तकिरिमं कष्पविमाणोववत्तियं आराहण आराहेइ १५ ) भावार्थ - चैत्य वन्दन का फल नाण दर्शन चरित्र बोधबीज का लाभ होता है । वोध बीज के लाभ से जीव अन्तक्रिया (मोक्ष कल्पविमानोत्पत्तिकां आराधना आराधयति ) । प्रिय ! यह चैत्य वन्दन से यावत् मोक्ष कहा है। अब तो आप सन्तोष कर इस वीर वचनों को आराधो । जैसा सूत्र में वैसा प्रतिमा छत्तीसी में | 20 | दशवेकालिक सिज्जं भवभट्ट । प्रतिमाथी प्रतिबोधजी ॥ जणगर्भावियशरोर निक्षेपा । अणुयोगद्वार त्यो जोयजी || Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 89 ] - प्रतिमा० ॥२२॥ अर्थ श्री दशवकालिक सूत्रके कर्ता श्री स्वयंभवसूरि को शान्तिनाथजी को प्रतिमा देख के प्रतिबोअ हुआयत्-सिज्जंभवं गणहरं जिणपडिमादसणण पडिबुद्ध । और इसी सूत्र के अध्य० 8 गा0 55 ।। यत् वित्तर्भाित ण गिज्झाए । नारि वा सुअलंकियं । भक्खर पिव दटठणं । दिठि पडिसमाहरे ।। 55 ॥ .. ___ मतलब जिस मकान में स्त्रियों के चित्राम बने होवे साधु उस मकान में नहीं रहे। विद्वानों को विचार करना चाहिये । जब स्त्री की मति (चित्र) से विषय विकार उत्पन होवे तो श्री वीतराग की निविकार शांतमुद्रा के दर्शन से वैराग्य उत्पन्न क्यों नहीं होवे ? अवश्य होवे । आगे अणुयोगद्वार में (जाणग शरीर०) - यत्-जहा को दिढतो अयं घयकुम्भे आसो अयं महुकुम्भे आसा से तं जाणयसरीर । जैसे जंबुद्वीप पन्नत्ति में - श्री रिषभदेव भगवान मोक्ष पधारे उनके शरीर को इन्द्रादिक ने वन्दन पूजन करी । भविय सरोर पाठ यत्-जहा को दिढतो अयं महुकुम्भे भविस्सइ अयं घयकुम्भे भघिस्सइ से तं भविय सीर । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 90 ) जैसे तीर्थंकरों के जन्म समय में इन्द्रादिक वन्दन पूजन करे 1 [ आगे निक्षेपे सुनो-] जत्थयजं जाणेज्जा निवखेवं निक्खेवे निरवसेसं । जत्थ विय न जाणेज्जा । चउक्कथं निविखवे तत्थ ||1| अर्थ - जहां जिस वस्तु में जितने निक्षेपे जाने. वहां उस वस्तु में उतने निक्षेपे करें और जिस वस्तु में अधिक निक्षेपे नहीं जान सके तो उस वस्तु में चार निक्षेपे तो अवश्य करे । ॥ श्री अहंतों के 4 निक्षेपा ॥ (1) अर्हतों का नाम लेना सो नाम निक्षेपा । ( 2 ) अर्हतों की प्रतिमा थापनी सो स्थापना निक्षेपा । (3) अर्हतों का अतीत मनागत काल सो द्रव्य निक्षेपा । ( 4 ) अर्हतों के 34 अतिशय आदि समोसरणवत् सो भाव निक्षेपा । इस तरह सब वस्तु में समझना । इसमें हमारे स्थानक - बासी भाई नाम निक्षेप को वन्दनीक मानते हैं और स्थापना निक्षेप को मानते हैं । परन्तु दीर्घ दृष्टि से विचार तो करें स्थापना में नाम मिले है । नाम से स्थापना में गुण की वृद्धि ज्यादा है । जैसे Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [1] नाम श्राचारांगकी माला फेरो [2] स्थापना आचारांग पुस्तक वांचो ज्ञान ज्यादा किसमें है ? ]1] नाम विलायत की माला फेरो [2] स्थापना विलायत का ( नकशा, फोट) देखने से अमेरिका आफ्रिका जर्मन जापान लंडन आदिका ज्ञान होता है । [1] नाम अरिहंतों की माला फेरी [2] स्थापना अरिहतों की मूर्ति 1 देखो मूर्ति में नाम शामिल है । इसीसे नाम से स्थापना में गुण ज्यादा है । [1] नाम जम्बूद्वीप की माला फेरो [2] स्थापना जम्बूद्वीप का पट देखो । ज्ञान ज्यादा किसनें है ? [1] (2) नाम हिन्दुस्थान की माला फेरो स्थापना हिन्दुस्थान का ( नकशा ) फोटू देखो (पूर्व पंजाब राजपूताना दक्षिण श्रादि पर्वत नदी रेलवे आदि का ज्ञान हो जाता है । [1] नाम जैनीयों का देव 2 [2] की मूर्ति । स्थापना जैनीयों का देव ज्यादा ज्ञान किसमें है ? स्वयं विचार करें । 91 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 92 ) की प्यारे ! अब सोचो ज्ञान ज्यादा किस में है ? राम सेन्या तरह. केवल राम 2 से ही सिद्धि नहीं है । जरा मतलब भी समझो । जिस से कल्याण हो । पूजा विषय गाथा 12 मो के अर्थ में लिख आये हैं । इति । थूभ का श्रीनन्दी सूत्रे । मुनिसुव्रत विशाला मांय जो । व्यवहारसूत्रे आलोयण लेवे। मुनि प्रतिमापासे जायजी प्र. 221 अर्थ - नन्दी सूत्र मूल (शुभ) विशाला नगरी में श्री मुनिसुव्रत भगवान का शुभ के प्रभाव से नगरी का बचाव हुआ । यह बात स्थानकवासियों में प्रसिद्ध है । व्यवहार सूत्र उदसा 1 में आलोवणा अधिकार में जो साधु के प्रायश्चित लागे तो आचार्य, उपाध्याय, बहुश्रुति, घणा आगम का जाण पासे आलोवे 1 कदाचित् आ० उ० नहीं होवे तो संभोगी साधु पासे आलोवे 2 कदाचित् संभोगी नहीं हो तो अन्य संभोगीं पासे अलोवे | कदाचित् अन्य सभोगी न होवे तो रूपसाधु कने आलोवे 4 रूपसाधु नहीं हो तो पच्छाकडा श्रावक पासे आलोवे 5 छाकडा श्रावक नहीं हो तो - यत् जत्थेव सम्मं भावियाई तेइयाई पासेज्जा कप्पेइ से तस्संतिए आलोइलए वा । अर्थ- सम्यक् भावित एटले सुविहित प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा । (चैत्य जिनौकस्तब्दियमिति वचनात ऐसी प्रतिमा देवे कल्पे तेहनी पासे आलोचज़ ! यह सूत्रार्थ में खुलासा- "जिन प्रतिमा पासे आलोयणा लेवे ।' ( प्रश्न ) क्या प्रतिमा जो प्रायश्चित दे सकती है ? Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 93 ] ( उत्तर ) प्रिय ! इस अलावा आगे गाम नगर के बारे में "सिद्धों की साख से आलोवना ले" तो सिद्ध क्या आलोयणा सुन प्रायश्चित देते हैं ? - प्रिय ! यह तो दोनों कारण हैं। कार्य तो अपने पाप का पश्चात्ताप करे, तो अंत करण से पाप को प्रगट करना इसी से देव गुरु की समक्ष आलोचते हैं इति । निशोथ कल्पदशा तस्कधे । नगरियां दो अधिकार जी। चपानी परे मंदिर शोभे । वीतराग वचन लोधारजी प्र.1231 अर्थ-निशीथ तथा बृहत् कल्प दशाश्रुतखन्ध में चम्पा आदि नगरियां हैं। जिसमें उक्वाइ सूत्र के परे (बहुला अरिहतचेइया) जिन मन्दिर कर शोभायमान है। फेर दशाश्रुतखन्ध अ० 8 में श्री वीर प्रभु के पिता सिद्धार्थ राजा ने जिन प्रतिमा पूजो है एवं त्रिशलादे राणी । सो पाठ यत् ( सयसाहस्सिए य जाए य दाए य इत्यादि) व्याख्या (सयसाहस्सिए य) लक्षप्रमाणान् (जाए य) यागान अर्हत्प्रतिमापूजाः भगवन्मातापित्रोः श्री पार्श्वनाथसन्तानीय श्रावकत्वात्यजधातोश्च देवपूजार्थत्वात् यागशब्देन प्रतिमापूजाः एव ग्राह्या:अन्यस्य यज्ञस्य असंभवात् । श्री पार्श्वनाथसन्तानीय विकत्वं चानयोराचारांगे प्रतिपादित (दाए य ) दायान् पर्वदिवसादौ दानानि । . Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 94 ) यह मूल सूत्र में मन्दिर प्रतिमा पूजा का अधिकार है ।इति।23 __ आवश्यक महिमा शब्द विचारो। भरत श्रेणिक भराव्या बिबजी। वग्गुर श्रावक पुरिमताल को । केइ चैत्य कराव्या थूभजी ॥प्र. 24 ।। ___ अर्थ - उक्त सूत्र लोगस्स में (कित्तिय वंदिय महिथा ) जिस में कीति वन्दना ये दो शब्द भाव पूजावाची हैं और (महिया) शब्द द्रव्य पूजाबाची है । टीका में भी ऐसा ही अर्थ किया है। आगे भरतचक्रिका अधिकार सुनोयत-थभसय माउआणं । चउवीस चैव जिणघरे कासी। सम्वजिणाणं पडिमा वण्णेणं । पमाणेहि नियहिं । 236। अर्थ-- भरतचऋत्तिने अपने सौ भाइयों के सौ स्तूप बनवाए और चोवीस तीर्थंकरों के मन्दिर तथा उनके अन्दर वर्ण तथा प्रमाण करके युक्त उनकी प्रतिमायें ( अष्टापद पर ) बनवाई और सुनो ... यत-अकसिणपवत्तगाणं विरया विरयाणंएस खलु जुत्तो । ... संसारपयणुकरणो दव्वत्थए कूदिद्वन्तो ।।6।। मतलब द्रव्य पूजा से संसार पतला करे याने क्षय करे,श्रावक। कूप दृष्टांत । श्री योगशास्त्र आदि में श्रेणिक राजा ने मन्दिर बनाया और 108 सोने के जव * से हमेशा जिन प्रतिमा आगे साथीयो करता और पूजा का अधिकार पीछे लिख आये हैं । आगे बग्गुर श्रावक का अधिकार सुनो - * स्था०मेतारजमुनि की ढाल में गाते हैं कि राजा श्रेणिक 108जव कराते थे। तब प्रतिमा को कोउं नहीं मानते ?अवश्य मानना चाहिए। - - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 95 ] यत् तत्तो य पुरिमेताले बग्गुरइसाण अच्चए पडिम, मल्लिजिणा ययणपडिमा अन्ताएवंसि बहुगोट्टी। इसका मतलब यह है कि पुरिमताल नगर में वग्गूर श्रावक ने मल्लिनाथ भगवान का मन्दिर बनवा के सपरिवार जिनप्रतिमा का पूजन किया। इनके सिबाय भी जैन सिद्धान्तों में मूति का अधिकार बहुत है । मगर इन लोगों में 92 सूत्र मान रखा है जिस से 32 सूत्र का ही प्रमाण दिया है । ज्यादा देखना हो तो महानिशीथ आदि सूत्र में देखो। (प्रश्न) अजी ! महानिशीथ तथा संदेहदोलावली, संघ पट्टक में तो मन्दिर मूर्ति का निषेध किया सुनते हैं। ( उत्तर ) प्रिय ! किसी गुरुगम से उक्त शास्त्र पढो । उनमें तो मन्दिर मति की स्थापना है । उक्त ग्रन्थकर्ता जैन आचार्य महाप्रभाविक श्री जिनवल्लभसूरि तथा जिन दत्त सूरिजी हुए हैं । उक्त ग्रन्थ में अविधिचैन्य * और साधु माल आरोप करने तथा चैत्य से साधू का आजीविका करने का निषेध है । उन्हीं महात्माओं के हस्तकमल से प्रतिष्ठा कराये अनेक शिखरबन्ध मन्दिर हैं । वो मारवाड मेवाड गुजरातादि में मौजद हैं। और महानिशीथ का नाम तुम लेते हो तो फरमाओ ! महानिशीथ सूत्र किस ने फरमाया है । * अविधिचैत्य-जैसे मान ममता आजीविका आदिके वास्ते करावे। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 96 ] ( पूर्वपक्ष ) महानिशीथ अ० 5 में गौतम स्वामी को श्री वीर ने फरमाया है । प्रभु (उत्तर) प्रिय ! यह बात आपको मजूर है कि महानिशीथ वीर प्रभु ने फरमाया है। तो लो सुनो ( 1 ) अध्ययन 2 में अष्ट प्रकार से पूजा करनी कही है । ( 2 ) अध्ययन 3 में मन्दिर बनाने वाला - 2 वें देवलोक में जावे । ( 3 ) अध्ययन 4 में संसार पातला करे इत्यादि । ज्यादा देखना होवे तो महानिशीथ सूत्र मूल पाठ में देख लेना चाहिए | विचारों ! क्या तीर्थंकरों के वचन ऐसे परस्पर विरुद्ध होते हैं कि अo2-3-4 में तो मूर्ति मन्दिर कह दिए और पांचवें अध्ययन में निषेध कर देवे ( वाह ! ) पिण आपने तो जैन सिद्धान्त को कुरान पुरान बना दिए ! शायद आप कह दोगे कि हम ऊपर लिखे अध्ययन नहीं मानते । तो आप की अज्ञानता विद्वानों से छिपी नहीं रहेगी, कि 2 3-4 अध्ययन तो नहीं मानना और 5 वां अध्ययन मानना । प्रिय ! पांचवां अध्ययन में ही स्पष्ट मन्दिर मूर्ति सिद्ध है । परन्तु आपके जैसे आदमी को (पीलिया) हो जा वे जब सफेद बस्तु पोली दीखे उस में आदमी का दोष नहीं. नहीं है । पोलिये का ही दोष है ऐसे ही आप को असत्य अज्ञान का पीलिया हो रहा है। जिससे 5 वें अध्ययन में मन्दिर मूर्ति सिद्ध है तो पिण आप को निषेध मालूम होता है। इसी में और 1 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 97 ] आप क्या करें ? दोष तो असली अज्ञान का है । उस को आप दूर कर दो तो अभी मालुम हो जावे । - लो सुनो महानिशीथ अ0 5 का मतलब- : उस समय चैत्यवासी, देव द्रव्य भक्षी लिंगधारी भ्रष्टाचारी मिथ्यादृष्टि चैत्य ममता' चैत्य से आजीविका करने वाला साधु + श्रीकमल प्रभाचार्य से कहता हुआ भगवन् आप एक चौमासा करें, आपके उपदेश से हमारे बहुत मन्दिर हो जावेंगे" यहां चैत्यवासी ने अपनो ममता आजीविका निमित्त अर्ज करी है । उस पर श्री आचार्य महाराज ने फरमाया (जइविजिणालए ) यद्यपि जिन मन्दिर है । इसका मतलब जिन मन्दिर याने विधि + चत्य की स्थापना करी । परन्तु उस भ्रष्टाचारी की ममताभाव के कहने पर आचार्य महाराज ने कहा है (तहाधि सावज्जमिणं नाहं वयामि ) जिन मंदिर हो तो पिण तुम्हारा जिनआज्ञा विरुद्ध कार्य सावध है, ऐसा वचन मैं नहीं बोल तो मन्दिर कराना कहां रहा इत्यादि जैसे कोई आजीविका-इस लोक परलोक की वांछा से सामायिक पोसह प्रादि करे तो उस को अविधि जाण साधु निषेध करे। परन्तु यह नहीं समझना कि सामायिक पोसह का निषेध हो गया। *विधि चैत्य 5 प्रकार-मंगलभक्ति० निश्राकृ० अनिश्राकृ० शाश्वता । * साधु जिन मंदिर का उपदेश देवे । परन्तु आप मंदिर में निवास या ममत्व नहीं करे या उसी से आपकी आजीविका नहीं करे। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 98 ] प्रिय ! अविधि का निषेध करने से विधि की स्थापना आप से ही हो गई । उसी से उक्त 3 शास्त्र में विधि चैत्य का मंडन और प्रविधि चैत्य का खंडन सिद्ध हुआ । 32 सूत्र में मूर्ति है । जैसा सूत्र में वैसा प्रतिमा छत्तीसी में । इति ।। 1 वादी कहे आ तो पंचांगी । म्हें तो मानां मूल जी । वज्रभाषा बोले ऐसी । नहीं समकित को मूलजी ॥1प्र. 25 अर्थ - यह ऊपर 32 सूत्र से मर्ति सिद्ध है । उनको देख के कितने ही कह देते हैं कि यह तो पंचांगों है। हम तो मूलसूत्र को मानते हैं । प्रिय ! यह भाषा कैसी वज्र समान है ! वज्र से तो एक ही भव में मरणो होवे, परन्तु ऐसी भाषा से तो भव 2 चतुर्गति परिभ्रमण करना पड़ता है। कारण अर्थ श्री अरिहंत फरमाते हैं और सूत्र गणधर रचते हैं । यत् ( अत्थं भासई अरहा सुत्तं गंथति गणहरा णिउणा ) ए अणुयोगद्वार का वचन है। अब विचारों, यह अथ अरिहंतों के फरमाये नहीं मानना ओर भद्रिक जावों को फसाने के लिये छलबाजी करके कहना कि हम मूल सूत्र मानते हैं । तो हम ऊपर सूत्रों का पाठ लिख आये हैं, उनहीं को क्यों नहीं मानते हो श्री वीर प्रभु के वचनको नहीं मानने वाले में समकित होवे ? अपितु न होवे इति । पंचांगी तो कही मानणी । सुणसूत्र की साखजी ॥ समवायंगे द्वादशांगडुंडी, जिनवर गणधर भाषजी 11प्र. 261 अर्थ- मूलसूत्र में पंचांगी माननी कही है। सुनो ! सूत्र समवायंग में 12 अंगकी नियुक्ति आदि माननी कही है । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 99 ) यत-आयारे णं परित्ता वायणा संखिज्जा अणुयोगदारा संखिज्जा वेढा संखिज्जा सिलोगा संखिज्जाओ निज्जत्तिओं संखिज्जामओ परिवत्तिओ संघयणीओ इत्यादि । ए आचारंग सूत्र की नियुक्ति संख्याती कहीं है। इसी तरह 12 अंगकी नियुक्ति मल पाठ में है। शतकपचवीस उद्देसो तीजो। भगवती अंग पिछाणजी। सूत्र अर्थ नियुक्तिमानों। या जिनवरकी आण जी॥प्र.27 अर्थ-मूत्र भगवती शतक 25 उ० 3 मूल पाठयत्-सुत्तत्थो खलु पढमो । बोओ गिज्जुत्तिमीसिनो भणिओ तइओ य निरवसेसो । एस विहि होइ अणुयोगे ॥1॥ अर्थ-पहली सूत्र अर्थ दूजी नियुक्ति के साथ कहना तीजी निरवशेष । इसीमें टीकाचणि भाष्य का समावेश होता है। जनुयोगद्वार सूत्र में देखो। नियुक्ति की बात जी । नंदी में नियुक्ति मानी । छोडो हठमिथ्यात्व जी॥ प्र.28 अर्थ-अणुयोगद्वार सूत्र में नियुक्ति यत् ( सुत्तागमे निज्जुत्ति अणुगमे य ) मतलब-सूत्र और नियुक्ति दोनों माननी कहा है । आग नंदी सूत्र सुनो - सुत्तत्थो खलु पढमो बीओ। निजत्तिमीसिओ भणिओ। तइओ य निरवसेसो । एस विहि होइ अणुओगे ।। 1 ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 100 ) अर्थ- पूर्व में लिख आये हैं प्रिय ! इतना मूल सूत्र के प्रमाख को नहीं मान के मिथ्या ( झूठ ) हठ करना क्या विद्वानों का काम है ? आत्म कल्याण चाहते हो तो इस झूठे कदाग्रह को छोड़ दो। वीर प्रभु के वचनों पर, आस्था रक्खो। वादी कहे वा तो नियुक्ति। गई काल में वीत जी । नवी रचीमापारिज। ज्यारि किम आवे परतीतजी॥प्र.29 अर्थ-मूल सूत्र में बोलने को जगह न मिली तब कितने गाडरी प्रवाह लोगों को भ्रम में डालते हैं कि सूत्र में कही वो पंचांगी इस काल में विघ्छेद हो गई और अभी जो है वो आचार्यों ने नई रची है। उनको क्या परतोत? मन्दिर प्रतिमा का अधिकार पीछे से मिला दिया होगा। सूत्र रह्या नियुक्ति वीती, या थे किम करी जाणी जी । आचारिज रचिया नहि.मानों, सुणजो आगे वाणी जी। प्रतिमा० ॥ 30॥ अर्थ-यह आप का कहना तद्दन मिथ्या है । लो ! जो पंचांगी इस काल में विच्छेद हो गई तो फिर 32 सूत्र किस तरह से रहे ? या फिर क्या लुकाजी के पढ़ने के वास्ते ही 32 सूत्र की रक्षा करी और किसी सूत्रों की नहीं करी । जो उधई आदि खा गया कहते हो तो क्या आप जैसे उन जानवरों को ज्ञान था सो 32 सूत्र तो रख दिये और सब खा गये । क्या आप लोगों की विद्वत्ता का परचा है ! कहां तक तारीफ करें ! Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 101 ) प्रिय ! जैसा 32 सूत्र पूर्वाचार्यों ने पुस्तकारूढ किया है वैसे ही बाकी सूत्र पंचांगी पुस्तकारूढ करी है । जो पंचांगी नई रची कहो तो 32 सूत्र भी नया रचा हुवा मानना पडेगा । नियुक्ति आदि में नई गाथा मिला दी तो मूल 32 सूत्र में नई गाथा मिलाने में उनकी कलम पकड़ने वाला कौन था ? देखो, उन प्राचार्य महाराज का वचन, जिस जगह जो बोल विसर्जन था । उस जगह कह दिया कि तप्वं केवली गम्यं । प्रिय ! केबल कदाग्रहवश हो के कहोगे कि हम तो प्राचार्य की रची पंचांगी नहीं मानें। तो आगे सुनो V तोन छेद भद्रबाहु रचिया । पनवणा श्यामाचार जी । दशवैका लिक सिज्जंभवकृत, निशीथ विसाख गणधार जी । प्र. 31 देवड्डिगणी जो नन्दी बनाई । घणा सूत्र का नामजी । ज्यों वृत्ति का कर्त्ता जाणो । भद्रबाहु स्वाम जी ।।प्र.3.2 --- अर्थ - श्री भद्रबाहु स्वामी प्रावारांगादि 11 सूत्र की नियुक्ति और 3 छेद सूत्र ( कल्प व्यवहार दशाश्रुतस्कंध ) बनाया है और 23 वें पाट श्यामाचार्य ने पनवणा सूत्र बनाया हैऔर श्रीशयंभवसूरि दशवेकालिक बनाई । श्री वेशाखागणी लघुनि -- शीथ वनाई | श्रीदेवधिगणी नन्दी बनाई। जिसमें 73 सूत्र 14000 पन्ना मानना कहा है । इस जगह 10 मिनट आंख मींच के सोचो कि भद्रबाहु स्वामी का 3 सूत्र मानना और 10 नहीं मानना । दूसरा 23 वीं पटा के 27वें पाठ के आचार्य काबनाया मानना और भद्रबाहु - Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 102 ) स्वामी की नियुक्ति नहीं माननी, यह कितनी विचार की बात है! प्रिय ! जब बोल चाल को निर्णय करना है तब तो टोका आदि की शरण लेते हैं । जब मति मानने का साबित होता है तब आप पंवांगी मानने में हिचकते हैं। परन्तु कृतघ्नपणे का कितना पाप है, वो हृदय में रखना जो टीका न होती तो आप का टब्बा कहां से बनता? जो टब्बा नहीं होता तो आपकी क्या दशा होती? खैर आगे सुनो प्रकरणमांसं ढालचोपइयां। प्रतिमा देवो गोपजी। तीजो महावत्त चोडे भांगो। जिनआज्ञा दीवी लोपजी॥प्र.33 एक भक्षर उत्थापे जिणरो। वधे अनन्त संसारजी। सूत्र का सूत्र नहीं माने । ए डूबे हूबावणहार जी ।। प्र.34 ___अर्थ -सूत्र ग्रंथ प्रकरण से ढाल चोपाइयां बनाते हैं । जिस में जहां मन्दिर प्रतिमा का अधिकार प्राता है वह कितनेक तो अधिकार निकाल देते हैं । जैसे रामचरित्र, गसिंहचरित्र,वीरथीकुसुमश्री चरित्र, जय विजय चरित्र, मंगल कलश, जंबूचरित्र आदि सैकड़ों ढाल चौपाइ हैं। कितने ही गोप देते हैं । कितने ही हरताल सफेदा लगा देते हैं । कहो इस में ग्रन्थकर्ता की चोरी - भगवान की चोरी से क्या तुम्हारा माना हुआ तोजा व्रत रह सकता है ? अपितु कभी नहीं ।। 33-34।। प्रिय ! जैन सिद्धातों में एक अक्षर मात्र भी न्यूनाधिक परूपणा से अनन्त संसार की वृद्धि हुवे तो फेर सूत्र का सूत्र ही नहीं माने उनका तो कहना ही क्या। प्रिय ! जैन सिद्धान्त तो Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 103 ) (तिण्णाणं तारयाणं ) है। परन्तु आप तो डुबार्ण डुबा वीयाणं । बन बैठे हैं । ज्यादा आपको क्या विशेषण देना चाहिये । बत्तीस सूत्रों में प्रतिमा बोल । चतरां ले लो जोयगी। भावदया मुज घटमां व्यापी, उपकारबुद्धि छे मोयजी ।। ॥प्र. 35॥ अर्थ-बत्तीस सूत्रों में प्रतिमा का अधिकार है, सो हमने बतला दिया है । वो चतुर पुरुष जान गये होंगे । प्रिय ! मेरे किसी से द्वेष भाव नहीं है । बल्कि कितने हा भद्रीक जीव उलटे रास्ते जा रहे हैं । उन्हीं पर भाव दया ला के उपगार बुद्धि से ही प्रतिमा छत्तीसो बनाई थी। जिस के मोहकर्म का क्षयोपशम होगा वही इस बात को धारण करेगा । मेरा तो कहना है कि सर्व जीव जिन शासन के रहस्य का पान करो और आत्म कल्याण करो! करो !! करो !!!जल्दी करो ।। 35 ।। प्रतिमा छत्तीसी सुणो भवि प्राणी । हृदये करो विनार पंथ छोडो समकित आराधो। पामो भवनो पारजो ॥प्र.36 अर्थ-प्रतिमा छत्तीसी सुन के हृदय में विचार करो। परन्तु जब तक पक्षपात है तब तक सोधामार्ग मिलना दूर है। इसी वास्ते पक्षपात छोड़ के जिनवचनों पर आस्था रखें तो संसार से जल्दी पार हो जावे ।। 36 ।। इति । कलश:-रायसिद्धारथ वंशभूषण, त्रिशला देवी मायजी। .. शासन नायक तार्थ ओसीया, रत्न विजय प्रणमे पायजो॥ साल बहत्तर जेठ मासे, सुद पञ्चमी गुरुवार जी । गयवर सरणो लियो तेरो, सफल भयो अवतारजी ॥37॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 104 ] अर्थ-सिद्धार्थ राजा के वंश में भूषण समान जिन्हों की माता त्रिशलादे है । ऐसे जो श्री वीर प्रभु शासन के नायक जिन्हों के बिंब की प्रतिष्ठा श्री पार्श्व प्रभु के 6 ठे पाट पर श्रीरत्न प्रभसूरि ने वीरनिर्वाण के 70 वर्ष गया तब स्वहस्ते करी है । जिनको आज 2371 वर्ष हुए हैं। ऐसा जो तीर्थ प्रोसीया नगरी में है। जिन के चरण कमल में श्री रत्नविजयजी प्रणाम कर रहे हैं। उक्त तीर्थ को यात्रा मैंने हर्ष उत्साह से करी है । श्री त्रिलोक पूजनिक वीर प्रभु से अर्जी करी है । अहो ! प्रभु आपकी अद्भुत शरण तारण तरण जान के मैंने आपका शरणा लिया है, मुझे भी प्राप ‘सरीखा बना दो। सफल अवतार हुवा जो मैंने आज वीर प्रभ की यात्रा करी । प्रतिमा छत्तीसी की रचना संवत् 1972 जैष्ठ सुदी 5 गुरुवार को करी है ।। इति । शुभम् ।। ____ अब जो असन्तोषचन्दजी के उपदेश प्रतिमा नकल निरूपण का जन्म हुवा है। उन्ही की महिमा सुन लीजिये । अव्वल तो स्तवन तुका सवैया पेस्तर बणा. हुवा था, इसी में असन्तोषचन्दजी ने क्या बहादुरी करी? दूजे छोटी सी भाषा की पुस्तक ही अन्य के पास शोधन कराई तो क्या वो गणधारी की आज्ञा में समझ सकेगा ? अपितु नहीं । पुस्तक छपाने के कारण तो मैंने सुनाया कि सन्तोषचन्दजी पहले तो ठीक प्ररूपणा करते थे, परन्तु उन्हीं का एक साधु (केसरीमल) मुनि ने श्रीहर्षमुनि जी के पासे फलोधि में जैन दीक्षा ले ली ।वो कदाग्नि समावेश न हुई । जिससे आपकी ज्वलंतज्वाला प्रगट कर गोडवाड में अपनी नामवरी फैलाई है । खैर 1इनके उत्तर भी इनी किताब में आ गये हैं। विशेष देखना हो तो हमारी बनाई सि० प्र० मु० नामकी पुस्तक देख लेना। अब हम (ए, पी. ) ने तथा असन्तोषचन्दजी मोतीलाल Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 105 ) आदि को हित शिक्षा देते हैं । हे बंधव ! आपने लिखा कि घेवरचन्द ने गप्पमारी तथा झूठ लिखा है । यह आपका वचन कैसा है सो विचारो ! श्री तीर्थकर गणधर-पूर्व आचार्य का वचन था जिसे मैंने लिखा था । उसको आप ने गप्प तथा झूठ कह दिया। प्रिय ! मैंने आपका टोला छोड़ दिया तो मेरे पर द्वेष कर इतनी गालियां दीं। उससे संतोष न हुवा हो तो और 100-200 देनी थी। परन्तु श्री तीर्थकर गणधरों के बचन को गप्प झूठ कहना ए आप को लाजिम नहीं था। शायद किसी शासन द्वेषी के सिखाने से कह दिया हो तो अब भी इस बात का प्रायश्चित ले के अपनी आत्मा को शुद्ध करो। मुझे आशा है कि दोनों महानुभाव इस । किताब को पढ़ के अपना नरभव सफल अवश्य करेंगे। दर्शन से दुःख मिटे-पूजन से पाप कटे मन्दिर में जाकर भगवान के दर्शन करने की इच्छा होवे तब एक उपवास का, दर्शन के वास्ते अपने स्थान से उठे तब दो उपवास का, मन्दिर जाने को तैयार हो तब तीन उपवास का, मन्दिर की तरफ जाने लगे- एक कदम रखे तब चार उपवास मन्दिर की तरफ चलते चलते पांच उपवास का पुन्य होता है, प्रभु की प्रतिमा को भाव से वंदन करने पर अनन्त पुन्य होता है । पूजन करने पर उससे सौ गुना पुन्य होता है। सामायिक पांचवीं कक्षा का धर्म है। भगवान का दर्शनपूजन चौथी क्लास का | चौथी पास किए बिना पांचवीं में बैठने वाला फैल हो जाता है । इसलिए सामायिक करने वालों को भी मन्दिर में प्रभुजी के दर्शन-पूजन करने ही चाहिए। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 106 ) सवैया ॥ प्रतिमा छत्तीसी मैं रचो, बत्तीस सूत्र को साख । जैसे गणधर भाषिया, तैसा दिया मैं दाख ॥1॥ वृथा खंडन, तेहनो, नकल निरूपण नाम । दूजो 'ए.पो.' ने कियो, जिन आज्ञा विरुद्ध काम ॥2॥ गलीच भाषो गालीयां, नहीं न्याय लवलेश । कहलो फैलायो जैनमें, जाने कोरट केस ।। 3 ।। दोनों पर दया करो, विलास बणायो सार । पक्षपात दूरे करी, वांचे नर और नार ॥ 4 ॥ छपतो लिखतो देखतो, अशुद्धि रही हो कोय । न्यूनाधिक परमाद से, मिच्छामि दुक्खडं मोय ॥5॥ उगणोसे बहुत्तरे, माघ मास सुदी जान । तोखो तिथि तोजकी, आदितवार व्याख्यान ॥ 6 ॥ चरम तीर्थकर बोर को, तोर्थ ओसोया जान । गयवरचन्द शरणी लियो, पाम्या जन्म परमाण 17॥ इति मुनि श्रीगयवरचंदजी विरचित गयवर विलासः सम्पूर्णः। - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा करें! वन्दन करें! स्तुति करें! 卐 no to the theme to the पहले सौधर्म देव लोक में बत्तीस लाख जैन मन्दिर हैं। दूसरे ईशाब देवलोक में अट्ठाइस लाख जैन मन्दिर हैं। तीसरे सनत्कुमार देवलोक में बारह लाख जैन मन्दिर हैं। चोथे माहेन्द्र देवलोक में आठ लाख जैन मन्दिर हैं। पांचवें ब्रह्मदेवलोक में चार लाख जैन मन्दिर हैं। छ8 लातक देवलोक में पचास हजार जैन मन्दिर हैं। सातवें महाशुक्र देवलोक में चालीस हजार जैन मन्दिर हैं। आठवें सहस्रार देवलोक में छः हजार जैन मन्दिर हैं / नवें मानत देवलोक में। चार सौः जैन मन्दिर हैं / दशवें प्राणत देवलोक में / इग्यारवें आरपा देवलोक में। / तीन सौ जैन मन्दिर हैं / बाहरवें अच्युत देवलोक में नौ गौवेयक देवलोक में तीन सौ अठारह जैन मन्दिर हैं। पांच अनुत्तर देवलोक में अति भव्य पांच जैन मन्दिर हैं। कुल मिलाकर बैमानिक देवलोक में चौराशी लाख सत्ताणवे हजार तेइस जैन मन्दिर हैं। जिन्दा रहने के लिए जितनी हवा (सांस) की आवश्यकता है / उतनी हो जैन धर्म में मन्दिर व मूर्ति पूजा की आवश्यकता है। जैन मन्दिर जिन्दाबाद ! मूर्ति पूजा सदा आबाद !! गणेश प्रिन्टिग प्रेस, लोहिया बाजार, ब्यावर 251751 हैं