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प्रिय ! जरा तो परभव का डर रखना था! द्रोपदीजी के घर में जिन मन्दिर और भगवान की पूजा करने वाली को मिथ्यातवी कहना कितना अहित का कारण है, आगे लिखा है कि द्रोपदीजी ने मूर्ति पूजी वो अरिहंत की नहीं थी, कामदेव की थी इत्यादि।
अहो कर्म गति ! मुझे आश्चर्य उत्पन्न होता है कि इस हठाग्रही जीव को केवली महाराज भी शायद ही समझा सकें । भोले भाई ! सूत्र में (जिनपडिमा ) कही है । जिस को प्राप कामदेव ( इलाजी ) कहते हैं तो ( कामदेव पडिमा) ऐसा कोई सूत्र का पाठ तो लिखना था। दूसरा नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं इत्यादि नमोत्थुणं का गुण कामदेव में है कि अरिहंतों में है ? मझे आप की अनुकंपा आती है । आप किस हठाग्रही के फंदे में फंस गये । क्या आप तिग्णाणं तारयागं कामदेव को ही समझते हैं ! अस्तु
सत्यार्थ चन्द्रोदय का उत्तर ढूढक हृदय नेत्राजन में देख लेना । कितने लोग कहते हैं कि द्रोपदी ने पूर्व भव में नियाणा किया था इत्यादि उनका समाधान हमारी बनाई सिद्ध प्रतिमा मुक्तावलि में हमने अच्छी तरह से खुलासा कर दिया है । जिस में यह नहीं लिखा है अस्तु आनन्द श्रावक का अधिकार सातवां अंग उपासक दशा सूत्र में है । सो मागे सुनो।।8।।
अन्यतीर्थी ने उणरी प्रतिमा, 'नहि वंदु जावजज्जीवजी' स्वतीर्थारीप्रतिमाबंदु,ज्यां ने बंछे समकित्तजीवजी प्रतिमा है।
अर्थ-सुगम सूत्राक्षर । सूत्र उपासक दशा अ० 1 मूल पाठ