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54 ] भोले भाईयो ! प्रक्षेप से कहना अच्छा समझना और सूत्र में है उसको बुरा समझना । कितनी अज्ञानता है ! सिद्ध हुवा कि तोसरे पाठ में अरिहंत शब्द है । खैर ! आगे सुनिये।
अरिहंत का साध भ्रष्ट हो के अन्य मत में चला गया उन को अरिहंतां का साधु कहना तो आप सरीखा निरक्षरों को ही घटते हैं । जैन सिद्धांतों में तो उनको अन्य तीर्थी ही कहा है सो पहिले पाठ में आ गया है।
देखिये ! ज्ञाता सूत्र में सुकदेव संन्यासी, भगवती में खंदक संन्यासो, शिवराजकृषेश्वर, पोगल संन्यासी तथा कालोदेई आदि अन्य मत को श्रद्धा छोड के भगवान् के पास दीक्षा लेने से भगवान् का ही साधु कहलाया था । आपके कहने से तो अरिहंतपरिग्गहिया अण्ण उत्थीय चेइयाणि व) होना चाहिये । परन्तु ऐसा पाठ गणधर महाराज ने नहीं फरमाया। सिद्ध हुआ तीसरे पाठ में चैत्यशब्द का अर्थ प्रतिमा है।
(पूर्व पक्ष ) सूत्र में ऐसा पाठ तो नहीं कि आनन्द ने प्रतिमा वंदनी राखी। आप ऐसे किस प्राधार से कहते हैं ?
(उत्तरपक्ष ) प्रिय ! सूत्र तो खुलासा पुकार रहा है, परन्तु आपकी अज्ञान दशा से प्रापको मालूम नहीं पड़े तो अज्ञान - चश्मे को उतार के देखो । आनन्द श्रावक ने भगवान के साधु को वन्दना करना, किस पाठ में रखा है सो बतला दो।
(पूर्व पक्ष ) अजी ! पहले पाठ में अन्य तीर्थी को नहीं वंदे स्व तीर्थों को वन्दना आपसे ही सिद्ध हो गया। जंसे झूठ बोलने का त्याग करने से सत्य बोलना आपसे ही रह गया ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं।
( उत्तर०) प्रिय ! बोलना तो न्याय, चलना अन्याय । यह