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तो प्राप से हमको इतना परिश्रम तो नहीं करना पड़ता । फिर भी यह हमेशा स्मरण रहे कि अब प्रापकी मायावृत्ति चलने की नहीं है । लो ! आपको मूल सूत्र तो मान्य है न ? देखो ! इसमें भी नट मत जाना
सूत्र भगवतीजी श० 25 उ० 3
सुतत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्ति मिसिओ भणिओ । सइओ निरवसेसो, एस विहि होइ अणुओगे ॥
भावार्थ - प्रथम सूत्रार्थ देना । दूसरा नियुक्ति सहित देना मोर तीसरा निर्विशेष (सम्पूर्ण ) देना । यह विधि अनुयोग यानि अर्थ कथन की है । इस सूत्र पाठ में तीसरे प्रकार की व्याख्या में भाष्य चूर्णी और टोका का समावेश होता है ।
इस मूल सूत्र में नियुक्ति मानने का कथन है । यदि उसे नहीं माना तो आपने भगवतीजी को भी नहीं मानी ! कहो ! अब भी आप के दिल में कुछ भ्रम है ? आप ने लिखा कि जड़ वस्तु की भक्ति तुम को जड़ बनायेगो इत्यादि । यह लेख श्रापका कितने दर्जे पर पहुंचा है ? भगवान तो फरमाते हैं कि चेतन का जड़ तोन काल में नहीं होता है और हम जो वीतराग की उपासना करते हैं सो हमें दृढ़ विश्वास है कि वीतराग हम को भी अपने सरीखा बना देगे । परन्तु आप भी पुस्तक पन्न े की उपासना करते हो ! अस्तु, आगे लिखा है कि प्रतिमा देख के तुम को ज्ञान तो नहीं हुआ इत्यादि । मित्र ! मुझे तो क्षयोपशम माफिक ज्ञान है । मगर तप संयम तो आप भी मानते हो, तो फिर तुम्हारे गुरूजी को ज्ञान नहीं उत्पन्न होने से तप संयम को निष्फल मानोगे क्या ? यह आप की प्रज्ञान दशा है ।