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लेना | सिद्ध हुआ कि सूत्र में तो प्रमाण आनन्दादि श्रावकों का जिन मन्दिर है और श्रावक जिन प्रतिमा वंदे पूजे । देखो हमारी प्रतिमा शिखर बन्द मंदिर में बिराजे है, इसी में शंका करना ही समकित का भंग है । श्रात्मार्थी सज्जनों को सूत्र का वांचना परिपूर्ण आस्था रखना चाहिये । जब ही समकित की नींव और कार्य श्रानन्द श्रावक की तरे सिद्ध होगा । अस्तु ॥ अंतगडने अणुत्तरोववाई । प्रथम उपांग रो साखजी । अरिहंत चंत्येनगरियां शोभे । श्रोजिन मुख से भाषजी, प्रति १०
अर्थ - उक्त दोनों सूत्र में चंपा नगरी के अधिकार में उववाई सूत्र की भोलावण है । जिस में मूल पाठका वर्णन चला है । जिस का खण्डन करने में ( ए० पी० ) को कोई कुयुक्ति न मिली तब कह दिया कि "उववाई में पूर्णभद्र यक्ष का मन्दिर है तथा श्री आत्मारामजी ने लिखा वो पाठ प्रक्षेप हैं । सात प्रतियाँ मेरे पास प्राचीन में यह पाठ नहीं है" इत्यादि बाकी गालियां | पाठको ! लुका मत को हो करीब 440 वर्ष हुए तो इन से प्राचीन की तो आशा हो क्या । मैंने स्थानक वासियों की 20-25 उववाई सूत्र की प्रतियां देखी हैं। जिस प्रति में उक्त पाठ है और जन भण्डारों से तो ताड पत्र पे लिखी हुई प्रति भी देखी जिसमें उक्त पाठ है, तो 'ए. पी.' क्या भोले जीवों को भूल में डालने के लिए धोखाबाजी कर रहा है? जो उक्त पाठ 'पाठांतर' देख के ही चमक गया हो तो उसका मतलब सुन लो ! जैन सिद्धान्त पूर्वधारी आचार्य ने पुस्तकारूढ मथुरा और बलभीपुर इन दो स्थलों में किया था। ये बात जैन जैनांतर में प्रसिद्ध है । जिसमें दोनों आचायों के लिखे हुए पाठ का भावार्थ प्रिय ! यही है । सो पाठ देखो