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________________ [ 56 ] (पूर्वपक्ष ) भला साहब ! आज जिस की श्रद्धा मूर्ति पूजने की है । वो सामान्य श्रावक भी मन्दिर बना सकते हैं । आनन्द श्रावक तो धनाड्य था। उनके मन्दिर बनाने का अधिकार किसी सूत्र में है नहों । तो फिर कैसे मान लिया जावें आनन्द श्रावक ने प्रतिमा पूजी। . ( उत्तर पक्ष ) प्रिय ! आनन्द श्रावक का अधिकार उपाशंकंदशासूत्र में है । उस सूत्र के पद 1152000 । जिनकी श्लोक सख्या तो बहुत होती है, उक्त शास्त्र में क्या-क्या बातें थीं। उसकी नुद श्री समवायंग सूत्र में है । सो सुनो पाठसे कितं उवासगदसाओ? उवासगदसासुणंउवासयाणं णगराइं उज्जाणाई चेइयाई वणसंडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मक हाओ। अर्थ-सुगम ! इस में (चे इयाइं) शब्द का अर्थ टीका का टबा का ( चैत्य ) याने जिन मन्दिर का ही है। शायद चैत्य का अर्थ बाग, ज्ञान, साधु करो तो बाग ज्ञान साधु का पाठ अलग है। इसी से (चैत्य) का अर्थ श्रावकों का जिन मन्दिर ही है। शायद कोई तर्क करे कि उपासक दशा में मन्दिर नहीं किया ( समाधान ) उपासक दसा 1152000 पद वाली लावो। हम बता सकते हैं । क्या उपासक दशा का कमग्रन्थ रहेने से समवायांग सूत्र झठा बनाते हैं. प्रिय ! आनन्द श्रावक के जमाने को करीब 2500 वर्ष हुए हैं । परन्तु जिन मन्दिर तो हजारों वर्षों के मौजूद दृष्टिगोचर होते हैं । इतना ही नहीं बल्कि अंग्रेज विद्वानों ने भी कहा है कि जैनों में मूर्ति पूजा सनातन से ही चली आती है । आप को देखना हो तो भावनगर की छपी हुई मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तर देख
SR No.006134
Book TitleGayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherSukanraj S Porwal
Publication Year1999
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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