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देखिये ! पूर्वधारी आचार्य ने तो दोनों पाठ प्रमाण किये हैं। उस पर आप के बड़ों ने टब्बा किया है । क्या उन्हीं का वचन उत्थापने को ही आपने अवतार धारण किया है ? प्रिय ! उक्त पाठ को प्रक्षेप कह देवोगे तो पिण दूसरे पाठ से भी मन्दिर तो सिद्ध हो गया। फिर कुयुक्ति कर संसार वृद्धि करना क्या बुद्धिमानों का काम है ! शायद तुम्हारे सरीखे मति के अंधे कह देवें कि यह मन्दिर जक्ष का होगा,प्रिय गणधर भगवान ने जक्ष का मन्दिर अलग फरमाया है।
तोसे गं चंपाए णयरिए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए पुणभद्दे णाम चेइए होत्था चिराइए।
अब आंख मीच के सोचो, आप की कलइ उड़ने में कुछ कसर रही है ? प्रिय ! इस समय में सूत्र देख के निर्णय करने वाले विद्वानों की संख्या दिन पर दिन बढती जा रही है. इतना ही नहीं बल्कि अंग्रेज लोग भी जान गये हैं। जैसे डाक्टर हरमन जैकोबी को जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरि से समागम जोधपुर में होने से उन्होंने भी निश्चय कर लिया कि जैनियों में मूर्ति पूजा सनातन है । आगे वैष्णव धर्म को मर्ख बना के समाजी तथा कबीर पंथी, दादू पन्थी का नाम लिखा है।
पाठको ! ( ए. पी.) मूर्ति विषय में आप के साधर्मी भाइयों का नाम लिखा । जैसे तो हमारे जैन धर्म में भी कितने ही आगम उत्थापी मूर्ति नहीं मानते हैं । जैसे बाइसपंथी, तेरापंथी, अजीवपंथी, गुलाबपंथी, आठकोटी पंथी और भी आज कल इन लोगों को बहुत विशेषण दिया हुआ है। परन्तु मैं अपनी कलम से लिखना नहीं चाहता हूं । मूर्ति पूजा विषय पीछे लिख आये हैं। और भी सुन लीजिये !