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था या जिन प्रतिमा पूजी थी, स्थानक कराया था, यहां कहने को बहुत हैं लेकिन ग्रन्थ बढ जाने से नहीं लिखते । विद्वानों के लिए इशारा भी असरकारी होता है।
प्रश्न ] क्यों जी ! ऐसा अर्थ सूत्र में हो तो फिर स्थानकवासी दूसरा अर्थ किस प्राधार से करते हैं ? . [उत्तर प्रिय ! आधार तो टीका का ही है । परन्तु जहां जिन प्रतिमा का अधिकार आवे तहां मनमाने गपोडे लगा देते हैं । जिस में भी सब टोले की एक मति नहीं है। कहो ! आप किस - का अर्थ सच मानोगे? . (प्रश्न ) हमको तो जो आपने लिखा वो पूर्वाचार्यों का ही - अर्थ प्रमाण है । अब आप आगे के तीन पाठों को कृपा करें।
[2] उक्त सूत्र अ० 5 मूल पाठ ' चेइयाणि य वणसंडे' टोकार्थ-चेइयाणि त्ति चैत्यवक्षान् आरामावीनां टम्बार्थ-चैत्यवृक्ष मोटा वन ।
ए. पी.] ने लिखा है कि देवता के चैत्य' परिग्रह में है। लक्ष्मी जानके पूजते हैं । देखो इनकी धूर्तता ! अव्वल तो पाठ लिख दिया और अर्थ नहीं लिखा । इसका कारण सूत्र में तो 'चैत्य' वृक्ष कहा है। इन्हीं लोगों ने जिन प्रतिमा के अभिप्राय से भोले लोगों को बहका दीए कि जिनप्रतिमा परिग्रह में है। मित्र ! प्रथम तो यह समझना चाहिये कि परिग्रह किसको कहते है ? देखो साधु वस्त्र पात्र उपधि रखते हैं सो मोक्ष साधवानिमित्त। परन्तु ममत्व करे तो वोही परिग्रह है । इसका भावार्थ परिग्रह ममता-मूर्छा को कहा है । जैसे