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यत् न सो परिग्गहो वृत्तो नायपुत्तेण ताईणा मुच्छा परिहो वृत्तो । इअ वृत्तं महैसिणा 112111 दश0 611
भावार्थ - परिग्रह ममता - मूर्छा को कहा है।
दूसरा लिखा है कि लक्ष्मी जान के देवता पूजते हैं । बन्धव ! देवता के तो विमाण आदि सर्वरत्नों के होते हैं। तब तो उनको भी पूजना तथा नमोत्थुणं देना चाहिये । परन्तु नमोत्थणं तो जिनप्रतिमा सिवाय किसी स्थान पर नहीं दिया है । इसीसे ( ए. पी. ) का लिखना बिल्कुल मिथ्या है ।
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3 उक्त सूत्र अ० 8 (चेइयटू ) टीका चरणानि जिन प्रतिमा । टब्बा - जिन प्रतिमा साधु प्रतिमा की वैयावच्च करे याने कोई जिन प्रतिमा की प्राशातना करता होवे तो साधु उस को उपदेशादिक देवे - आशातना टलावे । जैसे व्यवहार सूत्र उ० ॥ 10 ॥ सिद्ध की वैयावच्च करे तोजीव कर्म की निर्जरा करे । अब बतलावो साधु सिद्धों की वैयावच्च किस तरह से करे ? सिद्ध हुवा साधु सिद्धों की प्रतिमा की वैयावच्च करे। देखो ! जैसे आप के गुरु जी के फोटू पर कोई अज्ञानी बालक पेशाब करता हो तो आप उस बालक को उपदेश दे के फोटू बचाओ कि नहीं ? जैसे एक गांव में वैष्णवों के मन्दिर में एक मुखबन्धे साधु की मूर्ति बना कर उसकी आशातना करता था । फिर स्थानकवासी श्रावकों को मालूम पड़ा तो उनके साथ विवाद कर उस साधु की आशातना टलाई अब आप स्वयं विचार लेवें ।
4 to 10 साधु (चैत्य) नहीं देखे । वह चक्षु इन्द्री के विषय का वर्णन है । सो घर, हट्ट, तोरण, दरवाजा, नगर, देवकूल,