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________________ ( 70 ) म प्रतिमा आदि चक्षु इन्द्रिय का विषय पोषणे को नहीं देखे । परन्तु । मन्दिर जाना प्रतिमा वन्दना प्राश्रयी नहीं है । एसा होवे तो फिर गणधर महाराज प्रतिमा नहीं वन्दने से प्रायश्चित क्यों कहे हैं ? स्वयं ही विचार कर लो । प्रिय ! ऊपर जो चैत्य शब्द का अर्थ लिखा है वो मेरी मति से नहीं, परन्तु श्री भगवान के फरमाये मुताबिक पूर्वधारी आचार्यों ने कहा है, वैसा ही मैंने आपको सुना दिया है। - ए. पी. ने अव्वल तो पाठ ही आगे पीछे छोड के निशाचर की पर लिखा है। दूसरा अर्थ भी विपरित कूर्ण पूर्ण की तरह जिनमागम को परस्पर विरोधी बना दिया है । जो चेइग?) का अर्थ ज्ञान के वास्ते वैयावच्च करे । तो उनसे पूछना चाहिये कि नया दीक्षित-गिल्याणि-रोगी और तपस्वीयों से कौनसाशान लेवे । प्रिय विचारने का विषय तो यह है कि इन लोगों को शब्द ज्ञान भी नहीं है । तो श्री तीर्थकर भगवान के आशय को कैसे समझते ! देखो 'चेइय?' "निज्जरदो' इन दोनों शब्दों के अन्त में ठे ठी है। जिसका एक ही अर्थ कर दिया। अब इनको क्या विपोषण देना चाहिये! न ... । · । पूर्व पक्ष-अजी, प्रतिमा क्या आहार पानी करे है ? जो साधु उनकी वैयावच्च करे। . .. उत्तर० प्रिय ! केवल आहार पानी करने वाले की ही वेयावच्च करते हैं, तो साधु संघ गण कुल की वैयावच्च कैसे करे? संघ में श्रावक भी शामिल है । प्रिय ! गीतार्थ गुरु से धारण करे तो कुछ ज्ञानकी प्राप्ति होती है।
SR No.006134
Book TitleGayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherSukanraj S Porwal
Publication Year1999
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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