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स्वामी की नियुक्ति नहीं माननी, यह कितनी विचार की बात है!
प्रिय ! जब बोल चाल को निर्णय करना है तब तो टोका आदि की शरण लेते हैं । जब मति मानने का साबित होता है तब आप पंवांगी मानने में हिचकते हैं। परन्तु कृतघ्नपणे का कितना पाप है, वो हृदय में रखना जो टीका न होती तो आप का टब्बा कहां से बनता? जो टब्बा नहीं होता तो आपकी क्या दशा होती? खैर आगे सुनो
प्रकरणमांसं ढालचोपइयां। प्रतिमा देवो गोपजी। तीजो महावत्त चोडे भांगो। जिनआज्ञा दीवी लोपजी॥प्र.33 एक भक्षर उत्थापे जिणरो। वधे अनन्त संसारजी। सूत्र का सूत्र नहीं माने । ए डूबे हूबावणहार जी ।। प्र.34
___अर्थ -सूत्र ग्रंथ प्रकरण से ढाल चोपाइयां बनाते हैं । जिस में जहां मन्दिर प्रतिमा का अधिकार प्राता है वह कितनेक तो अधिकार निकाल देते हैं । जैसे रामचरित्र, गसिंहचरित्र,वीरथीकुसुमश्री चरित्र, जय विजय चरित्र, मंगल कलश, जंबूचरित्र आदि सैकड़ों ढाल चौपाइ हैं। कितने ही गोप देते हैं । कितने ही हरताल सफेदा लगा देते हैं । कहो इस में ग्रन्थकर्ता की चोरी - भगवान की चोरी से क्या तुम्हारा माना हुआ तोजा व्रत रह सकता है ? अपितु कभी नहीं ।। 33-34।।
प्रिय ! जैन सिद्धातों में एक अक्षर मात्र भी न्यूनाधिक परूपणा से अनन्त संसार की वृद्धि हुवे तो फेर सूत्र का सूत्र ही नहीं माने उनका तो कहना ही क्या। प्रिय ! जैन सिद्धान्त तो