SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 81 ) टीकार्थ-केचिज्जिनभक्तया जिने निर्वते जिनसकथि जिनवदाराध्यमिति केचिज्जीतमिति पुरातनैरिदमाचीर्णमित्यस्माभिरपीद कर्तव्यमिति केचिद्धर्मः पुण्यमिति कृत्वा । टब्बार्थ-- केतलाइक तीर्थंकरनी भक्तिजाणी ने. केतलाइक जीत-आपणो अाचार छ एहवा कहीने, केतलाइक धर्म जाणी ने । यह उक्त सूत्र में जो जमग देवता का वर्णन सूत्र में से विस्तार कहा है। जिनडाडों, जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा की 17 प्रकार पूजा सूर्याभदेवता की तरे समझ लेना । मूल पाठ : यत-तासिगं उत्तरपुरथिमेण सिद्धाययणा एस चोव जिणघराणवि गमोति,सव्वरयणामयाजिणपडिमा वण्णओ जाव धूवकडुच्छगा। इसकी टीका और टब्बे में बहुत विस्तार है और उक्त सूत्र में पर्वतों के ऊपर बहुतसा शाश्वता सिद्धायतन कहा है। । आगे चन्दपन्नति सूर्यपन्नत्ति सूत्र में चद्र सूर्य की राजधानी विमान । का वर्णन है । जिसमें जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा. जिन डाडों का बहुत अधिकार है। देखनाहो तो सूत्र मौजूद है । प्रिय ! जहां देवता प्रतिमा पूजा का अधिकार है, वहां सूर्याभदेवकी भोलामण से सब 1 ठिकाणे सूर्याभ देवता की तरे समझ लेना इति ।। 15 ।। निरयावलिका पुल्फिया माहे। चंपानगरी जाणजी । उववाई में वर्णन कीनो, अरिहंत चैत्य प्रमाण जो । प्रति० ॥१६॥ तीजे वर्गदशोइदेवता, पूजा नाटक विध जाणजी। चौथे
SR No.006134
Book TitleGayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherSukanraj S Porwal
Publication Year1999
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy