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दीर्घ दृष्टि से विचार करो तो दंसणविवन्नगा का संसर्ग करना भी दुर्गति का कारण है । कहा भी है- उ० प्र० 20 गाथा 44 विसं तु पीय जह कालकूड, हणइ सत्थं जह कुग्राहियं एतो विधम्मो विसओवबन्नो, हणइ वेयाल इवावन्नो
अर्थ- सुगम है | भाषार्थ विष मौर शस्त्र के प्रयोग से तो एक भव में मरण होता है । परन्तु कुगुरु की संगति चतुर्गति संसार में भ्रमण कराती है । इसलिए उक्त संगत को छोड़कर शुद्ध ममकित धारी का संसर्ग करो। जिससे अपना कल्याण हो ।
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( । ढाल 1 || आदर जोव क्षमागुण श्रादर । प्रतिमा छत्तोलो सुनो भवि प्राणीं ।
यह तर्ज )
सूत्रों के अनुसारजी । टेक । आचारांग दूजे श्रुतस्कंधे, पन्दर में अध्ययन मुझारजी । पांच भावना समकित केरी, नित बंदे अणगारजी ॥ प्र० ।।
अर्थ - श्री प्राचारांग श्रु० 2 अध्ययन 15 में दो प्रकार की भावना ( 1 ) प्रशस्त (2) प्रशस्त कही है / सो नीचे लिखता हूं । चौदह पूर्वधारी धर्म घुरधर श्राचार्य श्री भद्रबाहु स्वामीकृत नियुक्ति के मूल पाठ में प्रथम अप्रशस्त भावना यदुक्तं पाणिवह मुसादए, अदत्त मेहुण परिग्गहे चेव । कोहे माणे माया लोभे य, हवन्ति अप्पसत्था 145 1
भावार्थ - भावना दो प्रकार की है । प्रशस्त भावना और अप्रशस्त भावना । प्राणातिपात, मृषावाद, प्रदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा क्रोध मान मामा लोभ ये अप्रशस्त भावना जाननी ।
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