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अर्थ- बत्तीस सूत्रों में प्रतिमा का अधिकार यानि वर्णन है । उसे साबधान होकर सुनें। जिससे समकित की प्राप्ति होगी । समकित ही जगत में सार पदार्थ है ।
समकित विण चारित्र नहीं, चारित्र विण नहीं मोक्ष । कष्ट लोच किरिया करी, जन्म गमायो फोक ||4||
अर्थ- समकित के बिना चारित्र नहीं होता है । र चारित्र के बिना मोक्ष नहीं है। देखिए, उत्तराध्ययने प्र० 28
नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं, दंसणे उ भइयव्वं । सम्मत्तवरिताई जुगवं पुव्वं च सम्मतं ॥29॥ नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुंति चरण गुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमुक्खस्स मिव्वाणं 1301 अर्थ सुगम है । भावार्थ ऊपर लिखा है । तथा जिसके समकित नहीं है, उसकी लोचादिक कष्टक्रिया कर्मबन्ध की हो हेतु है । देखिए ! उत्तराध्ययने अध्ययन 20 गाथा 41
चिरंप से मुंडई भवित्ता, अथिरन्वये तव नियमेहि भट्ट । चिरंपि अप्पाणं किलेसइत्ता, न पारए हाइत संपराए ॥
अर्थ- सुगम है। भावार्थ- बहुत काल तक लोचादिक कष्ट करे और जो व्रत तप आदि में अस्थिर है, वह बहुत काल तक आत्मा को क्लेश पहुंचा कर भी संसार के पार न पहुले ।