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________________ [ 12 ] च्छानुषैः स्वल्पकालीनः कामभोगैस्तृप्तिर्भविष्यतीति कुतस्त्यमिति,एतत्परिगणय्य निविण्णकामभोगो यथोचितं परिभोगमकुर्वन राज्ञा संजातभयेन मा क्वचिद्या-स्थति अतः पञ्चभिः शतै राजपुत्राणां रक्षयितुमारेभे, इत्यादि । भावार्थ-एक दिन आर्द्रकुमार के पिता ने दूत के हाथ राजगृही नगरी में श्रेणिक राजा को प्राभृत (भेंट) भेजी। आईकुमार ने श्रेणिक राजा के पुत्र अभयकुमार के साथ स्नेह करने के वास्ते उसी दूत के हाथ भेंट भेजी । दूत ने राजगृह में जाकर श्रेणिक राजा को भेंट नजर की। राजा ने भी दूत का यथायोग्य सम्मान किया । और दूत ने प्रार्द्रकुमार के भेजे प्राभृत अभयकुमार को दीए तथा स्नेह पैदा करने के वचन कहे । तब अभयकुमार ने सोचा कि निश्चय ही यह आर्द्रकुमार भव्य है । निकट मोक्ष गामी है । जो मेरे साथ प्रीति इच्छता है । फिर अभयकुमार ने बहुत प्राभृत सहित प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा आर्द्रकुमार के लिए भेजी और दूत के द्वारा कहलाया कि इस प्राभृत को एकान्त में देखें । दूत ने जाकर यथोक्त कथन करके प्राभृत दे दीया । प्रतिमा को देखते देखते आर्द्रकुमार को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। धर्म में प्रतिबद्ध हुा । अभयकुमार को याद करता हुआ वैराग्य से काम भोगों में आसक्त नहीं होता हुमा रहता है । पिता ने जाना कि कभी यह कहीं चला न जाबे इस वास्ते पांच सौ सुभटों से पिता हमेशा उसकी रक्षा करता है । इत्यादि।
SR No.006134
Book TitleGayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherSukanraj S Porwal
Publication Year1999
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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