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से पूजन करना, स्तोत्रादिक से स्तवन करना इत्यादि दर्शन भावना जाननो । निरन्तर इस दर्शन भावना के भाने से दर्शन शुद्धि होती है। तथा तीर्थंकरों को जन्म भूमि में, निष्क्रमणदीक्षा, ज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण भूमि में तथा देवलोक विमानों के मन्दर मेरुपर्वत के ऊपर, नन्दीश्वर प्रादि द्वीपों में तथा पाताल भवनों में जो शाश्वते चैत्य जिन प्रतिमा हैं उन्हें मैं वन्दना करता हूँ तथा इसी तरह शत्रुजय-गिरि, गिरनार, गजाप्रपद दशार्णकूटतक्षशिला नगरी में धर्म चक्र तथा अहिच्छत्रा नगरी जहां धरणेन्द्र ने पाश्वनाथ स्वामी की महिमा की थी, रथावर्त पर्वत जहां श्री वज्रस्वामो ने पादपोपगमन अनशन किया था। और श्री महावीर स्वामी की शरण लेकर चमरेन्द्र ने उत्पतन किया था इत्यादि स्थानों में यथा संभव अभिगमन, वादन, पूजन, गुणोत्कोर्तनादि क्रिया करने से दर्शन शुद्धि होती है । तथा "गणित विषय में बीज गणितादि - गणितानुयोग का पारगामी है, अष्टांग निमित्त का पारगामी है, दृष्टि वादोक्त नानाविध युक्ति द्रव्यसंयोग का जान कार है, इसको समकित से देवता भी चलायमान नहीं कर सकते हैं, इनका ज्ञान यथार्थ है, ये जैसी प्रागाही करे वैसा ही होता है, इत्यादि प्रावनिक यानि प्राचार्य आदि को प्रशंसा करने से दर्शन शुद्धि होती है । इसी तरह और भी आचार्यादिक के गुण माहात्म्य का वर्णन करने से, पूर्व महषित्रों के नामोत्कीर्तन करने से, सुरेन्द्र-नरेन्द्र प्रादि द्वारा की गई उनकी पूजा का वर्णन करने 1. से तथा निरन्तर चैत्यों की पूजा करने से इत्यादि पूर्वोक्त क्रिया करने वालों के तथा पूर्वोक्त क्रिया की वासना से वासित अन्तः करण वाले प्राणी के सम्यक्त्व को शुद्धि होती है। यह प्रशस्त (दर्शन समकित संबंधी) भावना जाननी ।