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________________ (72) यहां (अरिहन्तचेइयाणिवा) टीकाकार ने अर्हच्चैत्या नि जिन प्रतिमा इत्यर्थ ऐसा अर्थ किया है। ___टब्बार्थ- अबड नाम संन्यासी नइ न कल्पै जैन ना श्रमण साधु थी बाह्य, शाक्यादिक अन्य दर्शनी शाक्यादिक अन्यतीर्थीना देवता हरिहरविरंचिप्रमुख अन्य तीर्थी शाक्यादिकई परिग्रह्या आपणा करिने थाप्या लेखव्या अरिहंतना चैत्य वीतराग प्रतिमा वांदिवा-हाथ जोडीन इ स्तुति करीबो, नमस्कार-पंचांग प्रणाम करीवओं, जावशब्दथकी सत्कारादिकना बोल पर्युपासना मन वचन कायाइ सेवा ना करीवो, अनेरु न कल्यै । तो स्युकल्पै ? अरिहंत साक्षात् वीतराग अनन्त ज्ञानी ते अरिहंतना चैत्य जिन प्रतिमा जिननी थापना ने वांदिवा नमस्कारादि करीवो कल्पै । प्रिय ! सूत्रार्थ में खुलासा जिन प्रतिमा वंदनी गणधर भगवानने फरमादिया है । तद्यपिः ए. पी.' लिखता है कि मैं अपूर्व चूर्ण तेरे वास्ते लाया हुं इत्यादि । पाठको ! गणधरों का चूर्ण तो मैं ऊपर लिख आया हूं । वे जैन जैनेतर में प्रसिद्ध है। परन्तु 'ए. पी. ने अपूर्व चूर्ण किस टट्टपुजीये की दुकान से क्या भाव खरीद किया है ? विचारने का विषय तो यहां गणधर का चूर्ण छोड के टट्टपुन्जीये का चूर्ण कौन विद्वान लेगा? शायद ए. पी. आप के गुरु और पांच पच्चीस भोली औरतें ले लेवें तो ताज्जुब नहीं। . - आगे 'अरिहन्तइयाणि वा' का अर्थ साधु किया है। उस पर जैन० दि० श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम लेके भद्रिक जीवों को जाल में फंसाने का प्रयत्न किया है और गालियां दी
SR No.006134
Book TitleGayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherSukanraj S Porwal
Publication Year1999
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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