Book Title: Gayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Author(s): Gyansundar
Publisher: Sukanraj S Porwal

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Page 102
________________ [ 97 ] आप क्या करें ? दोष तो असली अज्ञान का है । उस को आप दूर कर दो तो अभी मालुम हो जावे । - लो सुनो महानिशीथ अ0 5 का मतलब- : उस समय चैत्यवासी, देव द्रव्य भक्षी लिंगधारी भ्रष्टाचारी मिथ्यादृष्टि चैत्य ममता' चैत्य से आजीविका करने वाला साधु + श्रीकमल प्रभाचार्य से कहता हुआ भगवन् आप एक चौमासा करें, आपके उपदेश से हमारे बहुत मन्दिर हो जावेंगे" यहां चैत्यवासी ने अपनो ममता आजीविका निमित्त अर्ज करी है । उस पर श्री आचार्य महाराज ने फरमाया (जइविजिणालए ) यद्यपि जिन मन्दिर है । इसका मतलब जिन मन्दिर याने विधि + चत्य की स्थापना करी । परन्तु उस भ्रष्टाचारी की ममताभाव के कहने पर आचार्य महाराज ने कहा है (तहाधि सावज्जमिणं नाहं वयामि ) जिन मंदिर हो तो पिण तुम्हारा जिनआज्ञा विरुद्ध कार्य सावध है, ऐसा वचन मैं नहीं बोल तो मन्दिर कराना कहां रहा इत्यादि जैसे कोई आजीविका-इस लोक परलोक की वांछा से सामायिक पोसह प्रादि करे तो उस को अविधि जाण साधु निषेध करे। परन्तु यह नहीं समझना कि सामायिक पोसह का निषेध हो गया। *विधि चैत्य 5 प्रकार-मंगलभक्ति० निश्राकृ० अनिश्राकृ० शाश्वता । * साधु जिन मंदिर का उपदेश देवे । परन्तु आप मंदिर में निवास या ममत्व नहीं करे या उसी से आपकी आजीविका नहीं करे।

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