Book Title: Gayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Author(s): Gyansundar
Publisher: Sukanraj S Porwal

Previous | Next

Page 103
________________ [ 98 ] प्रिय ! अविधि का निषेध करने से विधि की स्थापना आप से ही हो गई । उसी से उक्त 3 शास्त्र में विधि चैत्य का मंडन और प्रविधि चैत्य का खंडन सिद्ध हुआ । 32 सूत्र में मूर्ति है । जैसा सूत्र में वैसा प्रतिमा छत्तीसी में । इति ।। 1 वादी कहे आ तो पंचांगी । म्हें तो मानां मूल जी । वज्रभाषा बोले ऐसी । नहीं समकित को मूलजी ॥1प्र. 25 अर्थ - यह ऊपर 32 सूत्र से मर्ति सिद्ध है । उनको देख के कितने ही कह देते हैं कि यह तो पंचांगों है। हम तो मूलसूत्र को मानते हैं । प्रिय ! यह भाषा कैसी वज्र समान है ! वज्र से तो एक ही भव में मरणो होवे, परन्तु ऐसी भाषा से तो भव 2 चतुर्गति परिभ्रमण करना पड़ता है। कारण अर्थ श्री अरिहंत फरमाते हैं और सूत्र गणधर रचते हैं । यत् ( अत्थं भासई अरहा सुत्तं गंथति गणहरा णिउणा ) ए अणुयोगद्वार का वचन है। अब विचारों, यह अथ अरिहंतों के फरमाये नहीं मानना ओर भद्रिक जावों को फसाने के लिये छलबाजी करके कहना कि हम मूल सूत्र मानते हैं । तो हम ऊपर सूत्रों का पाठ लिख आये हैं, उनहीं को क्यों नहीं मानते हो श्री वीर प्रभु के वचनको नहीं मानने वाले में समकित होवे ? अपितु न होवे इति । पंचांगी तो कही मानणी । सुणसूत्र की साखजी ॥ समवायंगे द्वादशांगडुंडी, जिनवर गणधर भाषजी 11प्र. 261 अर्थ- मूलसूत्र में पंचांगी माननी कही है। सुनो ! सूत्र समवायंग में 12 अंगकी नियुक्ति आदि माननी कही है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112