Book Title: Gayavar Vilas Arthat 32 Sutro Me Murtisiddha
Author(s): Gyansundar
Publisher: Sukanraj S Porwal

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Page 109
________________ [ 104 ] अर्थ-सिद्धार्थ राजा के वंश में भूषण समान जिन्हों की माता त्रिशलादे है । ऐसे जो श्री वीर प्रभु शासन के नायक जिन्हों के बिंब की प्रतिष्ठा श्री पार्श्व प्रभु के 6 ठे पाट पर श्रीरत्न प्रभसूरि ने वीरनिर्वाण के 70 वर्ष गया तब स्वहस्ते करी है । जिनको आज 2371 वर्ष हुए हैं। ऐसा जो तीर्थ प्रोसीया नगरी में है। जिन के चरण कमल में श्री रत्नविजयजी प्रणाम कर रहे हैं। उक्त तीर्थ को यात्रा मैंने हर्ष उत्साह से करी है । श्री त्रिलोक पूजनिक वीर प्रभु से अर्जी करी है । अहो ! प्रभु आपकी अद्भुत शरण तारण तरण जान के मैंने आपका शरणा लिया है, मुझे भी प्राप ‘सरीखा बना दो। सफल अवतार हुवा जो मैंने आज वीर प्रभ की यात्रा करी । प्रतिमा छत्तीसी की रचना संवत् 1972 जैष्ठ सुदी 5 गुरुवार को करी है ।। इति । शुभम् ।। ____ अब जो असन्तोषचन्दजी के उपदेश प्रतिमा नकल निरूपण का जन्म हुवा है। उन्ही की महिमा सुन लीजिये । अव्वल तो स्तवन तुका सवैया पेस्तर बणा. हुवा था, इसी में असन्तोषचन्दजी ने क्या बहादुरी करी? दूजे छोटी सी भाषा की पुस्तक ही अन्य के पास शोधन कराई तो क्या वो गणधारी की आज्ञा में समझ सकेगा ? अपितु नहीं । पुस्तक छपाने के कारण तो मैंने सुनाया कि सन्तोषचन्दजी पहले तो ठीक प्ररूपणा करते थे, परन्तु उन्हीं का एक साधु (केसरीमल) मुनि ने श्रीहर्षमुनि जी के पासे फलोधि में जैन दीक्षा ले ली ।वो कदाग्नि समावेश न हुई । जिससे आपकी ज्वलंतज्वाला प्रगट कर गोडवाड में अपनी नामवरी फैलाई है । खैर 1इनके उत्तर भी इनी किताब में आ गये हैं। विशेष देखना हो तो हमारी बनाई सि० प्र० मु० नामकी पुस्तक देख लेना। अब हम (ए, पी. ) ने तथा असन्तोषचन्दजी मोतीलाल

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